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________________ प्राचार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन आचार्यं भूतबली और पुष्पदन्त के पश्चात् आगमोत्तर साहित्य के सृजक, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में निरूपक, भगवान महावीर के और गणघर के समान मंगल-रूप आचार्य कुन्दकुन्द ही एक ऐसे आचार्य हैं जिन्हें जैन धर्म की दोनों परम्परायें समान रूप से प्रामाणिक मानती हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने विपुल साहित्य-सृजन कर अपने उत्तरकालवर्ती आध्यात्मिक और जैन दार्शनिक आचार्यों के लिए आदर्श प्रस्तुत किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी बहुमूल्य कृतियो मे तत्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारमीमासा का विवेचन किया है । वर्तमान में उपलब्ध इनके पाहुडो (ग्रन्थ) के अध्ययन करने के आधार पर यह कहा जा सकता है कि व्यवहार-निश्चयनयवाद, सप्तभङ्गी, आत्म-निरूपण शैली, उपयोग सिद्धांत, त्रिविध चेतना, ज्ञान की स्व-पर प्रकाशता, स्वभाव-विभाव ज्ञान, पुद्गल और आत्मा का सयोग, परमाणुवाद, सर्वज्ञतावाद आदि जैन दर्शन को ही नही बल्कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन को उनकी अनुपम देन है । निश्चय और व्यवहारनय नयवाद दर्शन-जगत का प्रमुख सिद्धान्त है । निश्चय और व्यवहार नय का सिद्धान्त भारतीय दर्शन को आचार्य कुन्दकुन्द की अद्वितीय देन है। समयसार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि निश्चय नय और व्यवहार नय पदार्थ निरूपण की दो दृष्टियां हैं। व्यवहार नय के द्वारा वस्तु के अयथार्थ स्वरूप का और निश्चय नय के द्वारा उसके यथार्थ स्वरूप का विवेचन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चयनय को भूतार्थं कहा है'। वे कहते हैं कि जो नय आत्मा को कर्मों के बन्धन से रहित, पुद्गल पदार्थ के स्पर्श से रहित, अनन्य, नियत, अविशेष और अन्य पदार्थों के संयोग से रहित देखने वाला है वह निश्चय नय कहलाता है और जो आत्मा [D] डा० लालचन्द जैन, वैशाली को पुद्गल द्रव्य का कर्ता, कर्म बन्धन से युक्त, कर्म रूप परिणमन और कर्म-प्रहण करने वाला मानता है वह व्यवहार-नय कहलाता है'। समयसार में निश्चय नय के द्वारा शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का और व्यवहार नय से पुद्गल कर्मबद्ध सासारिक आत्मा का विवेचन किया गया है । व्यवहार नय से वस्तु के स्वरूप का विवेचन वस्तु के यथार्थ स्वरूप के समझने के लिए किया है। इसी कथन को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार म्लेच्छ लोग म्लेच्छ जनो की भाषा के बिना वस्तु के स्वरूप को नही समझ सकते हैं उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ को नही समझा जा सकता है । प्रमेय विवेचन आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथो मे प्रमेय निरूपण अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योकि उनको भलीभांति जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आचार्य ने कही पर द्रव्य को और अन्यत्र लोक- अलोक एव पदार्थ को ज्ञेय' अर्थात् प्रमेय कहा है । दूसरे शब्दो मे ज्ञेय या प्रमेय का अर्थ पदार्थ, द्रव्य और लोक- अलोक है । सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्रथम श्रेणी है । इसलिए आचार्य ने दसण पाहुड़ मे छह द्रव्य - जीव, पुद्गल काय, धर्म, अधर्म, काल, आकाश, नौ पदार्थ जीव, अजीक, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, वध और मोक्ष, पाच अस्तिकाय " जीव, पुद्गलकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय एव सात तस्वो (पुण्य और पाप के अतिरिक्त) के स्वरूप का श्रद्धान करने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है"। सूत्र पाहुड़" मे जीव, अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थों और हेय-उपादेय तत्त्व के जानने वाले को सम्यग्दृष्टि कहा है। इस प्रकार प्रवचनसार मे आचार्य ने द्रव्य, गुण और पर्याय को" एव अन्यत्र केवल द्रव्य" को अर्थ बहकर बतलाया है कि अर्थ के जानने वालों का मोह नष्ट हो जाता है" और मोह के क्षय से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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