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________________ १२, वर्ष ३६, कि०२ अनेकान्त तब लगु निरमल दिष्टि बिनु तत्व पिछान न जाइ।।३। रूपचंद सदगुरुन की जनु बलिहारी जाह। ग्रंथ पढ़ अरु तप तपै सह परीसह साहु । आपुन वे सिवपुर गए भव्यन पंथ दिखाइ।१०। केवल तत्व पिछान बिनु ही कहुं निर्वाहु ।१४। गुरु न लखाई मैं लखी वस्तु भली पर दूर । चेतन तुम जु अनादि से कर्म कर्बमहि फेटि । मन सरसी सम नाल ज्यूं सूत्र रहो भरपूर ॥१०॥ समल अमल जल ज्यो भए सहज सुभाव हि मेटि ।५। इति रूपचंद शतक समाप्तम् । श्री। भेद ज्ञान अब कतक फल सद्गुरु दयो लखाद। ___ तीन पत्र पांच पृष्ठ । लम्बाई २३ से० मी० चौडाई चेतन निर्मल तत्व यह समल वके तक थाइ।१६) १४॥ से० मी० पक्तियां ३३ अक्षर २७ (प्रति पत्र) गुरु बिन भेद न पाइये को पर को निज वस्तु । कातिक सुदि तृतीय गुरुवार सं० अर्कादाकृत्यत्यष्टि गुरु बिन भव सागर विष परत गहै को हस्त ।१७। लाभवर्द्धन मुनि व्यलिखत । जो गुरु गुन भेदहि सही तो जन हो हम सिद्धि । त्रिद्विसप्तदशे वर्षे (१७२३) माघ सुदी रवी लिपि लोहा कंचन होइ जिम कचन रस के बिद्ध । परमानदेन । कार्तिक सुदी १४ स. १७३२ वर्षे १० गुरु माता अरु गुरु पिता गुरु बाधव गुरु मित्त । परमानन्देन लिखत -श्रुत कुटीर, ६८ कुन्ती मार्ग, हित उपदेसै कवल ज्यूं बिकसावै जन चित्त II विश्वासनगर, शाहदरा दिल्ली-११००३२ पृ० ७ का शेषांश] २६. देखिए, न्या० कु० च०, भा० २, प्रस्तावना; मुख्नार, कार, सक्मेसर्स आफ सातवाहनाज, पृ० ३००, मेडि. पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना पृ० ११०; जैनिज्म, पृ० ४१-४२; जना एन्टीक्वेरी भा० १३, सन्मति तर्क, प्रस्तावना, पृ० ३५-३६, जैसलमेर न० २, पृ० ३३; एम० ए० आर०, १९२१, पृ. भंडार सूची (बडोदा), पृ० १८ । सन् ६७६ ई० मे २३-२४ । ही रचित जीतकल्पणि की श्रीचन्द्रसूरि द्वारा ३८. देखिए हमारा लेख-पूज्यपाद आफ दी चालुक्यन लिखित वृत्ति में भी उक्त सदर्भ प्राप्त है। रेकार्डम, जैना एन्टीक्वेरी, भा० १६, न० १, पृ० ३०. एपी० कर्णा०, भा० २, न० ६७, पृ० २७-२८; भाग १६-२०, भा० २०, न० २, पृ० १-८ । ८, न० ३५, पृ० १३८-४२ । ३६. वही। ३१.बी० ए० साल्तोर, मेडिवल जैनिज्म, पृ०३६-३७, ४०. देखिए-हरिवंश पुराण (२/३१); भंडारकर की एपी० कर्णा०, २, न० ६७, भूमिका पृ० ४८ । सूची, १८८६, पृ० ३१; न्यायकु० च०, भा० १ व २ तथा अकलंक ग्रन्थत्रय की प्रस्तावनाए । ३२. विद्याभूषण, पूर्वोक्त, पृ० ३४, पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्ता० पृ० १८६; वर्णी. अभिग्रथ पृ० २०४ । ४१. देखिये, ज्यो० प्र० जन-'दी त्रिकलिंगाधिपति आफ २३. एपी० इंडिका, भाग २१, न० २२, पृ० १३३ आदि । हुएनसाग्स टाइम्स एड किंग हिमशीतल आफ अकलक ट्रेडीशन, जर्नल यू० पी० हिस्टोरिकल सोसायटी, ३४. देखिए हमारा लेख.. 'परवादि मल्ल देव और कृष्ण भा० ३, (न्यू सीरीज), अक २, पृ०१०८-१२५ तथा राज', शोधांक-१२ (३१-८-६१) पृ० ३६-४२ । ज्ञानोदय, नवबर ५० एव जनवरी, फरवरी, मार्च ३५. एपी० कर्णा०, भा० ४, नागर ८५, पृ० १३५-३६ ५१ के चार अक। ____ तथा भूमिका पृ०६, मेडि० जैनिज्म, पृ० ८८, १५५; ४२. ज्यो० प्र. जैन, 'दी जैना सोर्सेज'-पूर्वोक्त, पृ. ३६. देखिए हमारा लेख--"विमलचन्द्रीय अनुश्रुति का १८३ । 'शत्रुभयंकर', शोधांक ११ (१-६-६१), पृ० २-४। ४३. देखिये हमारा लेख-शोधांक ४ (१६ जुलाई ५६) ३७. इंडियन एन्टीक्वेरी, भा० १२, पृ० १६-२१; भा० पृ० १३०-१३३ । ७ पृ. ११२; भा० ३० पृ० १०६, डी० सी० सर. ॥ इति ॥
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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