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________________ "पशतक" एक अनूठी माध्यात्मिक रुति दहन पचन अरु तपन ज्यों अगिनिहि आहि असेस १५७१ विवहार नय सुवस्तुहि छिनक अर्थ पर्याय ७५॥ दर्शन वस्तु जु देखिए अरु जानि ये मुग्यान । निश्चय नय जो वस्तु है शायक रूपी एक। चारित थिरता तहि विष तिहुं प्रगट निरबान ।५८। दर्शन शान चरित्र के व्यवहार सु अनेक ७६। रत्नत्रय समुदाय बिन, साध्य सिद्धि कहुं नाहिं । फास रहित रस रहित है गंध रहित जु रूप । अध पगु अ आलमी जुदे जरहि दी माहि ॥५६॥ अह प्रतीति जु मानिए वस्तु जु शायक रूप ७७। दर्णन ज्ञान चरित्र के गहिये वस्तु प्रमान । अमूर्तीक रवभाव के निश्चय नय सुविचार । पोगै भारी चीकनो ज्यो कचन पहिचान ।६०। मूर्तीक सौं बध ती वस्तु कह यो व्यवहार ।७८) एक ज ज्ञायक वस्तु है माधिरु साधक सोइ । लोक प्रमाण प्रदेम ते वस्तु सुनिश्चय रूप । निर विकलप दोई मोचिए सिद्धि सर्वथा होइ ।६१॥ सकुचनि पसरनि देह मम सो व्यवहार निरूप ७६। दर्शन जान चरित्र ए तीनू साधक रूप। निश्चय नय नय परभाव को कर्ता भोक्ता नाहि । झायक मात्र जु वस्तु है ताहि को जु सरूप ।६२। विवहार घट कार ज्यो मुकर भुगत ताहि ।। प्रति विषयनि प्रति मति विर्ष प्रतिभासै जो कोइ।। मुद्ध निरजन ज्ञान मे निश्चय नय जे कोइ । अद्वितीय आनदमय वस्तु प्रवानहि सोइ ।६३। प्रकृति मिल व्यवहार की गग्ग निरूपि सोइ ।। अपने रम ज्यो लो न निज्य विश्व विप चिद्रूप । निश्चय मुकत मुभाव नै वंध कह यो व्यवहार । मृद्ध बोध आनद मय जानहु वस्तु सरूप ।६४) एवमादि नै जुगन के जानहु वस्तु विचार ।२। मोम गयो गलि मूमि में जाग्मि अवर होइ। निश्चय नय परमत्त जो अरु अप्रमन न होइ। पुरूषाकार सुज्ञान मे वस्तु न जाने कोइ।६५॥ गून सगै व्यवहार के पावहि जान किमोर ।३। वस्तू मुद्ध चनन्य मय लिपे छिपे कह नाहि । नय प्रमाण निक्षेप के परखि गही निज वस्तु । जद्यपि नव नवनि मिली मिले न काहू माहि ।६६। चिन्तामनि ज्य कर च, त्य कर गई ममम्त ।८४ नन मन वचन अगम्य है इन्द्रिनने हो दूरि। जहि देखे गब देखिए जान मब जहि जान । वस्तु सु अनुभव ज्ञान के गम्य कहै जिन मूरि ६ जहि पाये सब पाईए लेहु ताहि पहिचान ।। वस्तु सुजानहु जाहि विष गुन परज सह बास । चेतन के परिचय बिना जप तप सवै निरस्थ । अरु जहा सतत ही रहे थिति उत्पनि बिनास ६८ कन बिन तुम खुम फटकत आवै कछू न हत्थ ।। सहभावी गुन जानिए वस्नु विधान जु कोइ। चेतन के परिचय नहीं कहा नए बनधारि । क्रमवर्ती पर्याय है वस्तु विकार जु मोइ ।६६ मालि विहून खेत की वृथा बनावन वारि ।। उपजे बिन जो ऊपज नासै बिनु जु नमाई। ना लगि सर्वस मचत है अरु सब विप कहान । जैसे कू तैमो रहै वस्तु सु प्रति पर्याय ७०। जो लग चेतन तत्व है नहीं कहू पहिचान ।। नित्य अनित्यादिक विविध धर्ममयी नर आहि । बिना नत्व परिचय लगन अपग्भाव अभिराम । झगरन विमनिनि रुपिक अध दत विधि ताई।७१। तम और रम चन है अमृन न भाम्यो जाम ।८६। नय विभाग बिनु अन्ध ते कलपन जुगत बनाइ । सुनै परचाए अनुभये बार बार परभाव । वस्तु सरूपनि जानिहिं मरत बहिर मुख धाइ।७२। कबहू भूलि न परनए जायक मृद सुभाव ।। अनेकांत नै वादिनी जिनवानी जु रमाइ। कहां कहा मैनई तुम्हें मुर नर पद की रिद्धि। नित्य अनित्यादिक कथा नाके हिरद ममाड1७३। पर कबहू भूलिन भई चनन केबल सिद्धि । जिनवानी नै भेद के थापि जुदो इक पक्ष । अनादि दरमन मोह नै रही न मम्यक दृष्टि । ता बिनु मुनि जन मोह कू लख मुवम्नु अलक्ष ७॥ चेतन ताके तत्व मो भई न कवह दृष्टि ।। विजन परजे नित्य ज्यो निश्चय नय ममवाय । जब लगु मोह न उपमम महर्जाह कर लहिपाइ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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