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________________ १०, वर्ष ३६, कि०२ अनेकान्त घर जु तुम्हारी लूटियो जागत काहि न मीत ॥२१॥ भाजन सगि सलिल तप ज्यों पावक आताप ३६। विषयन की मनमा किये हाथ पर कछु नांहि । क्षीर नीर ज्यु मिल रहे को न कहै तन और । ज्यो सेंवल सेवै सुआ उडे तूल फल माहि ॥२२॥ चेतन तुम सा मझतन ही होत मिल में चोर ।४०॥ जैसी चेतन तुम करी ऐमी कर न कोय। भिन्न भयो भीतर रहे बाहर मिल्यो तो काइ । विषय सुखनि के कारने बैठे मर्वस खोय ॥२३॥ पर परतीति न मानिये शत्रु न चूकै दाव ।४१॥ चेतन मरकट मूढ ज्यो वाध्यो परसो मोहि । पर की सगति तुम गहै खोई अपनी जात । विषय गहन छूट नही मुकत बात कैसे होहि ।२४। आपा पर न पिछ, न हो रहे प्रमादनि मात ।४२। चेतन तुम जु पढ़ सुआ, लटके भवद्रुम कूलि । सहज प्रकृति तुम परहरी पकरी पर की वानि । विषय करहि किन छडिही कहा रहे भ्रम भूलि ।२५॥ प्रकृति फिर जब पुरुष की होइ सर्वथा हानि ।। सुख लग विषय भजी भले सुख की बात अगाध । जो कछु कर सो पर कर कर तुहारी छाह । काजी पिये न पूजिये सुरहि दूध की साध ।२६। दोप तुम्हारे सिर चढ तुम कछु समझत नाहि ।४४) निज सुख छत सेवत विष चेतन यही समान । परमो सग कहा कियो पर सौ आथव होइ। घर पंचामृति छडिक मांगत भीख अयान ।२७। सवर पर के परिहरै विरला बूझ कोड ।४५॥ सुख स्वाधीन जु परिहर विषयनि परि अतिराग । पर सजोगतै बध है पर वियोग ते मोख । कमल सरोवर छडिक घट जल पीवै काग ।२८। चेतन पर के मिलन मे लागत है सब दोप ।४६। सेवत विपय अनादि ते तिसना तो न बुझाइ। चेतन तुम जु सुजान हो जड सो कहा सनेह । ज्यु जलते सरिता पति ईधन सिखि अधिकाइ ।२६। जान अजानहि क्यो मिल मेरे मन सदेह ।४७॥ चेतन सहजहि सुख बिना यह तिसना न बुझाई । अपनो ही अपनो भलो और न अपनो कोइ । मेघ सलिल बिन ऊमते ग्रीषम तपति न जाइ।३०। कोकिल काग जु पोसिये काग न कोकिल होई ।४। चेतन तुमहि न बूझीए करत विदेश विहार । स्व पर विवेक है नही तुमे पर सो कहत जु आप । ताकै कहा अब चाहियै जार्क रतन भडार ३१॥ चेतन मति विभ्रम भई रज्जु विष जिम साप ।४६। चेतन तुमहि कहा भयो घर छाड़े बेहाल । चेतन तुम बेसुध भए गयो अपनपो भूलि । संग पराये फिरत हो विषय सुखनि के ख्याल ।३२। काहू तेरे सिर मनो मेली मोहन धूलि ॥५॥ बडे करे तुम धापियऊ करत नीच के काम । मोहे मम तुम आपको जानत हो पर दर्व । पर घर फिरत जु लघु भये बहुन धराए नाम ॥३३॥ ज्यो जनमा तू कनक को कनकहि देखे सर्व ॥५१॥ अपने ही घर सब बड़े पर घर महिमा नाहि । भ्रम तें भूल्यो अपनपो खोजत किन घट माहि। सिव के अरु भव के न रहे फेर किती इह मांहि ।३४॥ बिसरी वस्तु न कर चढे जो घर ढूढ़हि नाहि ।५२। सिव छड़े भव ही मते अब है तुहारो ग्यान । घट भीतर सो आप है तुमहि नही कछु यादि । राज तज भिक्षा भर्ष सो तुम कियो कहान ।३५॥ वस्तु मुठि में भूलिक इत उत खोजत वादि ।५३। चेतन तुम प्रभु जगत के रंक भए बिललात । पाहन माहि सुवर्न ज्यु दारु विष हुत भोज । बैठि चौक तजि चाट हो तिन सौ क्यु न लजात ।३६। त्यु तुम व्यापक घट विष देख करो किन खोज ।५४। चेतन तुम हो कहा सदी रत्न त्रय निधि दादि। पुहुपनि विष सुवास ज्यौं तिलनि विष ज्यु तेल । रहे दीन हुइ कृपन जिम कहा वह फल सावि ॥३७॥ त्यु तुम घट में रहत हो जिन जानहु यह खेल ॥५॥ प्रथम अचेत अरु असुचि जो कर मिले में हानि । दर्शन ज्ञान चरित्र मय वस्तु बसै घट माहि । चेतन तन में बसत हो कहा भलाई जानि ॥३८॥ मूरख मरम न जानही बाहिर खोजन जाहि ॥५६॥ तन की संगति जरत हो चेतन दु:ख सो आप । दर्शन शान चरित्र मय वचनहि मात्र विसेस ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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