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३२, बर्ष ३६, कि०१
अनेकान्त पूजा-प्रतिष्ठा, विधान, संस्कार-विधियों को सुरक्षित रखा, वास्तव में ज्ञान-दान का कोई मूल्य नहीं। विद्वान् तो यद्यपि कालान्तर में ये कार्य व्यवसाय बनने से विकृत हो समाज से पोषण पाकर भी समाज के गुरु ही हैं और गए। विद्वानो ने लोगों में श्रद्धा-ज्ञान और चारित्र जगाने उनकी श्रेणी माता-पिता से भी उच्च है। जैसे लोग अशक्त के लिए जगह-जनह भ्रमण कर प्रवचन किए। शास्त्रो को माता-पिता की सेवा करते हैं, उनका भरण-पोषण करते सुरक्षित रखा। और भी जितने धार्मिक प्रसंग उपस्थित हैं वैसे ही उन्हे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए। यदि होते रहे सभी में विद्वानों का पूर्ण योगदान रहा । विमियो समाज विद्वानो के साथ ये सब व्यवहार करे तब भी विद्वानो द्वारा आगम,मार्ग पर किए गए प्रहारों को भी विद्वानों ने के ऋण से उऋण नही हो सकता । आखिर, कोई देगा निर्मूल किया। आदि !
तो विद्वान् को कितना भौतिक धन-वैभव दे सकेगा ? जो यह कहना भी अत्युक्ति होगा कि धर्मक्षेत्रों मे विद्वानो भी वह देगा सब यही छूट जायेगा-नश्वर होगा । जबकि ने ही सब कुछ किया और दूसरों का उसमें हाथ न था। विद्वान् का दिया हुआ ज्ञान-धन जन्म-जन्मान्तरों तक वास्तविकता तो यह है कि ये सभी कार्य 'परसरोपग्रह- साथ जायगा और सद्गति में सहायक होगा । फिर जब जीवानाम्' के संदर्भ मे चलता रहा और सभी अपनी- विद्वान् ने अपना तन-मन सब कुछ समाज के लिए अर्पण अपनी योग्यतानुसार धर्म मार्ग को प्रशस्त करते रहे ज्ञान कर दिया हो तब उसके मुकाबले मे भौतिक सम्पदा अकिवाले ज्ञान और धन वाले धन देते रहे। इस मार्ग में गिरा- चन ही है। अत: समाज का कर्तव्य है कि माता-पिता वट तब आई जब विद्वान् स्वय ज्ञान-दान के लिए किसी और धर्म-उपकरण मन्दिर आदि की भांति विद्वानों का प्रकार का ठहराव करने और किसी निश्चित राशि में सरक्षण करे और विद्वान भी सदाचारी धार्मिक और बंधने लगे और अन्य लोग विद्वान् को बदला चुकाने की निर्भीक रहकर, समाज के होकर धर्म-प्रभाव मे तार बात सोचने के आदी बन गए। हो सकता है इसमे एक- रहे। दूसरे की ओर से प्रस्तुत कोई ऐसे अन्य कारण उपस्थित ध्यान रहे, विद्वद्गण समाज के ऐसे धन है जो उसकी हुए हों जिनसे दोनों को मार्ग बदलने को मजबूर होना धर्म-सम्पदा की रक्षा और वृद्धि मे सहायक होते है । पड़ा हो । काश, ये विचारा गया होता कि किसी के ऋण समाज विद्वानो के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता। से कभी उऋण नही हुआ जा सकता तो ये प्रसग उपस्थित और तो और-विद्वान् हमारी मरणासन्न दशा मे भी न होता । वाद को और भी बहुत-सी विसगतिया पैदा होने हमारी समाधि करा हमारी सद्गति मे कर्णधार बनते रहे लगी। लोगो ने प्रदत्त धन या दान-द्रव्य से निर्मित उप- है। इनके अभाव मे धार्मिक जगत् मे अन्धेरा छा जायगा करणो-भवनादि मे अहम्भाव को स्थापित करना प्रारम्भ और हम भटक जाएगे। ऐसा अनर्थ न हो, अतः उद्यम कर दिया। वे त्याग कर भी इस सम्पदा को अपना और करना चाहिए कि कैसे विद्वानों की रक्षा की जाय और अपने विद्वान् को पराया समझने लगे। कुछ विद्वान् भी कैसे विद्वद्वश बढ़ाने में साधन-भूत धार्मिक संस्थाओं को दृढ़ आचार-विचार से शिथिलाचारी और समाज से निराश किया जाय? जरा सोचिए ? होते रहे । ऐसी विसंगतियों को दूर किया जाना चाहिए ।
-सम्पादक मोह-जो-बड़ो का अर्थ है 'मरे हुओं का स्थान'–श्मशान । लोक में श्मशान में जाने वाला अशुद्ध हो जाता है उसको शुद्धि नहा-धोकर होती है। पर, साधुगण वहाँ शुद्धि के लिए समाधिस्थ होते है। ये विरोध कैसा?
विचारा जाय तो कोई विरोध नहीं । जिसने मरे हुओं की खोजबीन की—पर की खोज में लगा रहा वह अशुद्ध हुआ और जिसने श्मशान का उपयोग वैराग्य के बधन हेतु कर अपनी खोज का प्रयत्न किया वह शुद्ध हुआ।
तू सोच, कि तू उन मरे हुओं की खोज कर रहा है या अपनी? अशुद्धि की ओर जा रहा है या शुद्धि की? दिखता तो ऐसा है कि आज लोग आत्मा से भटके हैं और मात्र 'मोहं-बो-दड़ो' की खोज में लगे हैं।