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________________ अनेकान्त रत्नपुर से पाहुना आया। आत्म समर्पण की विधि बता रहा है :पंज-आधुनिक हिंदी में पंज प्रचलन में नही है. "दसन गहहु तृण कंठ कुठारी, मध्ययुगीन हिंदी में इसका प्रयोग अधिक था। परिजन संग सहित निज नारी ॥ व्युत्पत्ति होगी-प्रतिज्ञा-पइज्ज-पेज । सादर जनक सुता करि आगे पइज करेवि गउ दस लोयणु (प० च) एहि विधि चलहु सब भय त्यागे" रावण प्रतिज्ञा कर चला गया। रावण, तुम दांतों मे तिनका लो, और कठ मे कुठारी, 'चितउर चली पैज के दूती', पदमावत तथा अरिजनो के साथ अपनी नारी (पत्नी) लो। फिर दूती प्रतिज्ञा कर, चित्तौड़ के लिए चली ! आदर पूर्वक जनक पुत्री सीता को आगे करो सब प्रकार वाति-दाति शब्द का प्रयोग कबीर ने किया है। का भय छोड़कर इस प्रकार चलो। स्वयभू और तुलसी"सतगुरु सान को सगा दास के बीच लगभग ७०० वर्ष का अन्तर है, फिर भी, सोधी सईन दाति," दोनो के मुहावरो मे समानता है। कुठार का अर्थ कुठार टीका कार, दाति का दाता अर्थ करते हुए लिखते हैं- है, पग्गइ या कुछ और अर्थ करना ठीक नही। मध्य युग सद्गुरु के समान कोई सगा नही है, और सोधी यानी ईश्वर में अपनी हार मानने की यही विधि थी! के खोजी के समान कोई दाता नही है। प्रश्न है ईश्वर अहिबात का अर्थ, हिंदी टीकाओ मे सौभाग्य का खोजी दाता कैसे हुआ ? दाता तो ईश्वर ही हो सकता मिलता है। प्रश्न है यह अर्थ कैसे हुआ-चिरु अहिवात, है 'वास्तव में दानि' संस्कृत दातृता से बनी भाव वाचक असीस हमारी"। वस्तुतः अहिवात के मूल मे अविधसज्ञा है। स्वयंभू के प० च० में उल्लेख है 'णं दत्ति वात्व शब्द है। अविधवात्व-अइहवत्त-अहिवत्तविवज्जिउ किविण धणु' मानो दान से रहित कजूस का अहिवात्त अहिबाता । अहिबाता, यानी तुम्हारा पति धन हो। व्युत्पत्ति-दातृता-दत्तिआ–दत्ति-दाति। हमेशा बना रहे । इसी प्रकार शोधि शुद्धि का तद्भव है। अत: कबीर की जौहर करना-जौहर करना और जौहर दिखाना उक्त अर्धाली का अर्थ होगा सद्गुरु के समान कोई सगा दो अलग-अलग मुहाबरे हैं, हिंदी मे इनके बारे में नही है, और शोध (ईश्वर की खोज) के समान कोई भ्रम है। पहले मूल में संस्कृत जतुगृह शब्द है, जबकि दाति, देने या समर्पण का भाव नही है। दूसरे में फारसी जौहर (साहस, रत्न) शब्द है । जतुगृह कंठ कुठार-'कंठ कुठार' के विचित्र अर्थ मानम की यानी लाक्षा गृह । प्राचीन भारत मे शत्रु को धोखे से मारने टीकाओ मे मिलते है । स्वयभू का अवतरण है :- के लिए जतुगृह का उपयोग होता था जो विभिन्न रासा'दंत तिणणे कठ कुठारें यनिक द्रव्यो से बना होता था। महाभारत और स्वयभू णमिउ णराहिउ विणयाचारे के रिट्ठणेमि-चरिउ मे इसका विस्तृत वर्णन है । व्युत्पत्ति इस प्रकार है, जतुगृह-जउहर-जोहर-जौहर । हउं तुहारा एवहिं किंकरू जोहर करना-सामूहिक अग्निदाह करना। सपरिवार सकलत्तु सपुत्तउ' रि०० च बरात और जनतराजा विराट युधिष्ठिर के मामने आत्मसमर्पण कर मध्ययुगीन कविता मे 'बरात' और जनत दोनों शब्दो रहा है । अर्थ है : का प्रयोग है, जो क्रमश: वरयात्रा और यज्ञ यात्रा के जिसमे तिनके का अगला भाग दांतो में है, कंठ मे तद्भव हैं । हिंदी मे बरात प्रयुक्त है। स्वयभू ने वर आत्त कुठार है ऐसे विनय-आचरण मे राजा विराट झुक गया और जण्णत्त शब्दो का प्रयोग इसी अर्थ मे किया है। (और बोला) मैं अब अपने परिवार कलत्र और पुत्र भारतीय परम्परा में विवाह भी एक यज्ञ है। मानस सहित, तुम्हारा अनुचर है। मे वरि आता और 'जनेत' शब्दों का प्रयोग है। 'रामचरित मानम' में अंगद रावण को राम के सामने (शेष पृ० १५ पर)
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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