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विचारणीय-प्रसंग
पचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
जिनवाणी अनेकान्तमय है और आचार्य अमृतचन्द्र जी "संकीर्णरस:'-संकीणीः व्याप्ताः रसाः यस्मिन् सः अनेकान्त वाद के ज्ञाता और परमोपासक । यही कारण है
(एतादृशः स्वभावः) कि उनकी रचनाओं में पग-पग पर इस वाद की गहरी जिसमें रस संकीर्ण-व्याप्त है वह (ऐसा स्वभाव) मलक मिलती है। वैसे आज भी नया बहुत कुछ लिखा जा शांतरसः'-शान्ताः निर्गताः रसाः यस्मात् सः (एतादृशः रहा है-बड़े-बड़े विद्वान् प्राचीन ग्रंथों की विस्तृत टीकायें
स्वभावः) और व्याख्यायें भी कर रहे है। उनके समक्ष हम जैसे मन्दों
जिससे रस शान्त हो गए-चले गए (ऐसा स्वभाव) का कुछ लिखना हास्यास्पद ही होगा। फिर भी हमे अपने विचार देने का कोई आदेश प्राप्त हुआ है अतः मन्तव्य
-बहुव्रीहि समासान्त उक्त दोनों रूपों को समरूप से लिख रहे है-जाता हमें स्खलन से संभाल लें-हमे कोई
दोनों स्थलों में अपनाने पर अर्थ युक्ति-संगत और ठीक बैठ हठ नही।
जाता है। ऊपर की पंक्ति मे अस्तिरूप और नीचे की
पंक्ति में नास्ति रूप। 'प्रनादि रक्तस्य तवायमासीत, यः एव संकीर्णरस: स्वभावः ।
यदि हम आ० अमृतचन्द्र जी की इस अस्ति और
नास्ति दृष्टि का ध्यान न रख, दोनों पदों के समासो में मार्गावतारे हठमाजितश्री
व्यत्यय करे अर्थात् भिन्न-भिन्न समासों का प्रयोग करें तो स्त्वया कृतः शांतरसः स एव ॥"
अस्ति और नास्ति दृष्टि का लोप ही होगा। 'जैसे कि उक्त काव्य 'लधुतत्त्वस्फोट' से है। इसमें आचार्य 'सकीर्णरस.' में बहब्रीहि का प्रयोग करना और 'शान्तरसः' अमृतचन्द्र जी ने आत्मा के स्वभाव का वर्णन रसों के अस्ति मे कर्म-धारय का प्रयोग करना आदि । कुछ लोग तत्पुरुष और नास्ति दोनों पक्षों की अपेक्षा से किया है। दूसरी समास भी कर रहे हैं। पंक्ति में 'संकीर्णरसः' पद रसो के अस्ति रूप को और चौथी पंक्ति में 'शान्तरसः' पद रसो के नास्ति रूप को
हाँ, यदि शांत-रस नामक रस की भांति कोई 'संकीर्ण
र रस' नामक स्वतन्त्र रस भी होता तब दोनों पदों में कर्मदर्शा रहा है। अर्थात् जो स्वभाव अनादि से रागी होने के रस कारण अनेक भौतिक रसों से व्याप्त था वह स्वभाव केवल
धारय समास भी चल सकता था। पर, संकीर्ण नाम का
कोई रस स्वतन्त्र नही है अतः उसमें कर्म-धारय का प्रश्न शानी (रागरहित) होने पर हठ पूर्वक उन रसों से शान्त
ही नही उठता। साथ मे ऐसा समास करने से समासों की अव्याप्त-रहित हो गया ।
एकरूपता का विरोध ही होगा । तथा ऐसा करने में एक प्रस्तुत काव्य का अर्थ करते समय हमे 'संकीर्णरस' तो मोनोस और 'शान्तरस.' दोनों पदो के विग्रह की एकरूपता का को"परिमाण" की तुला से नापेंगे और 'शांतरसः' में इसको ध्यान रखना चाहिए । बिना एकरूपता के स्याद्वाद-संमत "जाति" की तुला से नापेंगे, जबकि समास-समरूपता की शुद्ध अर्थ फलित होना असम्भव है। हमारा मत है कि दष्टि से दोनों स्थानो में सम-जातीय तुला से ही नाप होना उक्त दोनों पदों का विग्रह निम्न रूप में लेना युक्ति संगत न्याय्य है। ऐसा हमारा भाव है। फलत:-उत्तम यही है
नि यदि हमें आत्मा मैं रस मानने का आग्रह ही हो तो