________________
"रूपशतक" एक अनूठी प्राध्यात्मिक कृति
I
मेरे पास 'बनारमी विलास' की एक प्राचीन हस्तलिखित पोषी है जो २२ से० मी० लम्बी १४.१/२ से० मी. चौडी है। यह तीन चरणो मे लिखी गई है अतः तीनो का लिपिकाल भिन्न-भिन्न है। प्रथम चरण मे कविवर बनारसीदास कृत "समय सार कलश नाटक" है जो कार्तिक सुदी तृतीय गुरुवार स० अर्कादागत्य त्यष्टि (सभवत. १७०० हो सष्ट नही समझ सका) को श्रीलाभवर्द्धनमुनि ने लिपि की द्वितीय चरण में अमृतचद स्वामी की समयसार की संस्कृत टीका है जो माघ सुदी रवि वार स० १७२३ मे प० परमानद ने लिपि की और तृतीय चरण मे कविवर बनारसीदास कृत सभी रचनाए 'बनारसी विलास' के नाम से अकित है जो कार्तिक सुदी १४ स० १७३२ मे प० परमानद ने लिपि की । इनकी लिपि बडी सुन्दर और सुवाच्य है, पृष्ठ मात्रा का प्रयोग किया गया है, लाल स्याही भी प्रयुक्त है। अंतिम चरण की लिपि मे प्रति पत्र ३३ पक्तिया है तथा प्रत्येक पक्ति मे २७ अक्षर है ।
इस पोथी का सबसे बड़ा महत्व यह है कि कवि बनारसीदास एव प० रूपचन्द्र जी की मृत्यु के बाद क्रमश ३२ और २६ वर्ष बाद की लिखी हुई है । अत अन्य पोथियों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय कही जा सकती है। इसी पोथी के प्रथम और द्वितीय चरण के बीच खाली छूटे कुछ पत्रो मे से तीन पत्रो अर्थात पांच पृष्ठो पर प्रस्तुत "रूपपद शतक" नामक श्रेष्ठ कृति अकित है । यह कृति 'बिहारी शतक' के दोहो की भाति बड़ी गंभीर और अर्थ परक है, चूंकि 'बिहारी शृगारी रचना है अतः हिन्दी मे पर्याप्त प्रसिद्ध हो गई है और यह आध्यात्मिक रस से सराबोर है अत इसे उतनी अधिक ख्याति न मिल सकी। इसके दोहे सतसेवा के दोहरो की भाति छोटे पर अत्यधिक गंभीर और आध्या
क
C श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
त्मिक हृदय को भेदने वाले है।
यद्यपि कवि रूपचद जी ने अपने शतक मे अपना परिचय नही दिया है अतः स्पष्ट रूप से कुछ कहना कठिन है पर चूंकि 'बनारसी विलास' के बीच के पत्रों में इसे स्थान प्राप्त है और रूपचंद नाम से अलकृत है अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यह कृति कविवर बनारसीदाम के गुरू प० रूपचद जी द्वारा रचित है, इस कृति को किन्ही पोथियों में 'दोहा शतक' या 'परमार्थ शनक' नाम से भो उल्लेख किया है पर 'रूप शतक' या 'रूपचद शतक' के नाम से यह पहला ही उल्लेख देखने को मिला है।
पूर्ववर्ती विद्वान स्व० पं० नाथूराम जी प्रेमी तथा श्री कस्तूरचा जी कासलीवाल रूपचंद नाम के दो विद्वान मानते है एक रूपचंद दूसरे रूपचंद पाडे । पर, परवर्ती विद्वान स्व० प० नेमीचंद जी ज्योतिषाचार्य तथा स्व ० प० परमानद जी शास्त्री इन दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं। 'अर्धकथानक के प्रकरणो से भी यही ज्ञात होता है कि दोनो एक ही है; कही उन्हे रूपचंद तथा कही उन्हें पाडे उपाधि से अलकृत रूपचद लिखा है। कही प० रूपचन्द भी लिखा है । वे स० १६६० मे आगरे पधारे थे और तिहूना के मंदिर मे ठहरे थे, वे दरियापुर (बाराबंकी) भी गये थे।
यही रूपचंद जी कविवर बनारसीदास के परम आदरणीय गुरु ये इन्हीं द्वारा गोमट्टसार के प्रवचन और उपदेश सुन बनारसीदास जी दिगम्बरस्व की ओर आकर्षित हुए थे और 'समयसार नाटक' जैसी सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति जैन हिन्दी साहित्य को समर्पित कर सके। इसके अतिरिक्त बनारसीदास जी की और बहुत सी छोटी मोटी रचनाए है जिनका संकलन सं० २००१ मे श्री जग जीवन ने 'बनारसी विलास' नाम से किया है।