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गतांक से आगे:
पावार्य कुन्दकुन्द की जैन दर्शन को देन
DO लालचन्द जैन, वैशाली
४. अत्ला के तीन भेद : बहरात्मा, अन्तरामा अब्याबाध, अनिन्द्रिय, अनुपम, पाप-पुण्य से युक्त, पुनरागमन और परमात्मा
से रहिन, नित्य, अचल और अनालम्ब है। आचार्य कुन्दआचार्य कुन्दकुन्द के मोस्वाहुड़ (मोक्षप्राभूत) मे कुन्द के पूर्व आत्मा के उपर्युक्त तीन भेदों का निरूपण आत्मा के तीन भेद उपलब्ध होते हैं -बहिरात्मा, अन्त. आचारांगादि अग साहित्य में भी उपलब्ध नही होता है। रात्मा और परमात्मा।' अत्मा के इस प्रकार के भेद कुन्द- ५. त्रिविध चेतना कुन्दाचार्य के पूर्ववर्ती जैन वाड्मय मे दृष्टि गोचर नही आत्मा चेतना रूप हे अर्थात् चेतना आत्मा का स्वरूप होते है । अतः यह भी उनकी एक अभूतपूर्व देन है। कुन्द- है। चेतना को अनुभूति, उपलब्धि और वेदना भी कहते हैं कुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अनुकरण कर आचार्य कुन्दकुन्द ने तीन प्रकार की चेतना का उल्लेख आत्मा के उपर्युक्त भेदो का विवेचन किया है।
किया है। चेतना के इस प्रकार के भेदो का उल्लेख अर्धबहिरात्मा का स्वरूप.-इन्द्रियो को आत्मा मागधी आगम में उपलब्ध नहीं है। आचार्य ने बतलाया मानना बहिरात्मा है। बाह्य पदार्थों में जिसका मन है कि आत्पा परिणामी है और वह चेतना रूप परिणमन आसक्त है, इन्द्रियरूपी द्वार से जो अपने स्वरूप से भ्रष्ट करता है। इस दृष्टि से चेतना निम्नाकित तीन प्रकार (च्युत) हो गया है, जो अपने शरीर को आत्मा मानना है की है। - और उसका ध्यान करता है, ऐमा मूढ दृष्टि वाला बहि- १) ज्ञान चेतना, २) कर्म चेतना, और ३) कर्मफल रात्मा कहलाता है। जो आवश्यक कर्म म रहित है, अन्त बतना । जल्प और बाह्मजल्प मे वर्तता है और न रहित है वह स्व-पर भेदपूर्वक जीवादि पदार्थों को जानना अर्थात् बहिरात्मा है।'
ज्ञानभाव रूप परिणमन करना ज्ञान चेतना है। आत्मा ने अन्तरात्मा-जो आत्मा का सकल्प करता है, आवश्यक (शुभ-अशुभ कार्य करते समय) जो भाव किए है वह भावकम से युक्त, जो जल्पो में वर्तता है, धर्म-ध्यान और शुक्ल- कर्म है, जो अनेक प्रकार के हैं। इसे कर्म चेतना कहते हैं, ध्यान मे परिणत है वह अन्तरात्मा कहलाता है। कर्मजन्य सुख-दुख का अनुभव करना कर्मफल चेतना है।"
परमात्मा–जो आत्मा कर्म कलक से विमुक्त है, मैल चेतना की अपेक्षा सम्पूर्ण जीवराशि उपर्युक्त तीन शरीर और इन्द्रियो से रहित है, केवलज्ञानमय है, विशुद्ध भागों में विभाजित है।" जिनके ज्ञानावरणादि समस्त कर्म है, परमपद मे स्थित है, परम जिन है, मोक्ष देने वाला नष्ट हो गये है और जो प्रमुख रूप से ज्ञानरूप परिणमन अविनाशी सिद्ध है, समस्त दोषों से रहित है, केवल शान करते हैं उनके ज्ञानचेतना होती है। यह चेतना केवलज्ञानी आदि परम वैभव से युक्त है परमात्मा कहलाता है। और सिद्धों के होती है। परमात्मा ज्ञानी, शिव, परमेष्ठि, सर्वज्ञ, विष्णु चतुमुंख जो जीव प्रमुख रूप से केवल कर्म-फलो का अनुभव तथा बुद्ध भी कहलाता है। परमतत्त्व जन्म, जरा और करते हैं वे कर्म-फल चेतना युक्त जीव कहलाते है । पृथ्वी.
ण से रहित है, उत्कृष्ट, अष्टकर्मों से वजित, शुद्ध ज्ञानादि काय आदि स्थावर जीवों के कर्मफल चेतना होती है। दो चार गुण रूप स्वभाव वाला, अक्षय, अविनाशी, अछेय, इन्द्रियादि स जीवो के कर्मचेतना होती है।