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१६ बर्ष ३६, कि०४
अनेकान्त ६. उपयोगवाद
रखता है उसके शुभोपयोग होता है।" यह उपयोग चतुर्थआचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार में गुणस्थान से छठे गुणस्थान तक के जीवों के तारतम्यरूप उपयोग सिद्धान्त का जो विवेचन मिलता है वह आचारी- से होता है । शुभोपयोग से पुण्य का संचय होता है। गादि आगमों में दृष्टिगोचर नहीं होता है। चेतना की शभोग्योग क. फल परिणति विशेष उपयोग कहलाता है। उपयोग चैतन्य को शुभांपयोग के प्रभाव से शुभोपयोगी जीव उत्तम तिर्यच छोडकर अन्यत्र नही रहता इसलिए उपयोग चैतन्य का उत्तम मनुष्य तथा उत्तम देव होता है और आयु पर्यन्त अन्वयी परिणाम कहलाता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने आगम अनेक प्रकार के उत्तम सुखों को भोगता है।" आचार्य ने ग्रन्थों की तरह आत्मा को उपयोग स्वरूप और ज्ञान-दर्शन यह भी कहा कि शुभोपयोग से युक्त आत्मा को स्वर्ग के रूप बतलाया है। लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के सखों की प्राप्ति होती है। परिणमन की अपेक्षा उपयोग के तीन भेद बतलाये है"
अशुभोग्योग (१) अशुभोपयोग, (२) शुभोपयोग, (३) शुद्धोपयोग ।
अशुभोपयोग अशुभ-भावो अर्थात् मोह, द्वेष और अप्रपचास्तिकाय और भाव पाहुड़ मे उन्होंने बतलाया है कि
शस्त राग से होता है। इन्द्रिय विषय स्पर्शनादि और भाव तीन प्रकार के होते है-(१) शुभ, (२) अशुभ और
क्रोधादि कषाय मे परिणत होना, मिथ्या शास्त्र सुनना, पर
के लिए इष्ट काम भोग की चिन्ता से युक्त होना, दृष्टों शुभ अशुभ अनुष्ठानों के करने से क्रमश. शुभ भाव
की संगत करना, और दुचर्या करना अर्थात् परनिन्दा और अशुभ भाव होते हैं। जब आत्मा शुभ और अशुभ
करना, हिंसादि पाप करने मे उग्र होना और उन्मार्गी अनुष्ठानो के विकल्पों से रहित निर्विकल्प रूप हो जाता
होना अर्थात् सर्वज्ञ कथित मार्ग से उल्टे मार्ग को अपनाना है तो उसके शुद्ध भाव होता है । अत: शुभ भाव रूप से
अशुभोपयोग कहलाता है।" परिणमन करने से आत्मा शुभोपयोगी, अशुभ भाव से युक्त
अशुभोपयोग अशुभ परिणामो से होता है। अत: यह होने से अशुभोपयोग वाला और शुद्ध भावो से युक्त होने से
पाप का कारण है।" अशुभोपयोग से युक्त आत्मा कुमनुष्य आत्मा शुद्धोपयोगी कहलाता हैं।" शुभ, अशुभ और शुद्ध
तिर्यच और नारकी होकर अनन्त दुखो से दुखित होकर रूप अनुष्ठान करने से होने वाले शुभोपयोग, अशुभोपयोग
ससार में भ्रमण करता रहता है।" प्रवचनसार के टीका. और शुद्धोपयोग के स्वरूप, उनके फल और हेय-उपादेव का
कार के अनुसार मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र के गुणसूक्ष्म और विशद विवेचन प्रवचनसार में उपलब्ध है।
स्थानों के जीवो के अशुभोपयोग होता है।" १. शुभोपयोग
प्रशस्त राग शुभ भाव कहनाता है। पवास्तिकाय में शभापयोग और प्रशमोरयोग में अन्तर अरहन्त सिद्ध और साधुश्रो मे भक्ति रखना शुभ राग रूप अशभोपयोग और शुभोपयोग दोनो अशुद्ध अरिणामो धर्म में प्रवृत्ति होना तया गुरुओं के अनुकूल चलना प्रशस्त से होते है इसलिए ये दोनों अशुद्धोपयोग कहलाते हैं। राग कहा है। अत. प्रशस्तराग से युक्त होना शुभोपयोग लेकिन शुभोपयोग पुण्य का कारण है और इससे इन्द्र, नरेन्द्र कहलाता है। प्रवचनसार में उन्होंने शुभोपयोग का लक्षण चक्रवर्ती एव स्वों के सुखो तक उपलब्धि हो सकती है। बतलाते हुए कहा है कि देव, शास्त्र, गुरु की पूजा करना, क्योकि शुभोपयोग शुभ अनुष्ठानों से होता है । अतः व्यवहार दान देना, अहिंसादि पांच महाव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत नय की अपेक्षा धर्म है। इसलिए शुभोपयोग उपादेय है। का निदोष रूप से पालन करना, उपवास आदि करना इसके विपरीत अशुभोपयोग अशुभ अशुभ अनुष्ठानों के शुभोपयोग कहलाता है।"शेयाधिकार में भी कहा है कि करने से होता है। इसलिए यह एक मात्र दुःख का कारण जो मरहन्त को जानता है, सिद्धों तथा अनगारों अर्थात् है। व्यवहार नय की दृष्टि से भी धर्म का अंश न होने के मुनियों के प्रति श्रया करता है और जीवों में अनुकम्पा कारण सर्वथा हेय है।"