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गुप्त सम्राट् रामगुप्त जैनधर्मानुरागी था ?
दुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल
गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना यद्यपि आधुनिक प्रसिद्ध इतिहासकार डा0 अल्टेकर जाता है । इस तण मे चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्र गुप्त, राम- और डा0 मजूमदार ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "The Vakataगुप्त (काचगुप्त) उसका भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त ka Gupta age" मैं स्पष्ट रूप से निषेध कर दिया है। आदि बड़े प्रतापी और बलशाली बुद्धिमान शासक हुए थे। कि जब तक इस तरह के कोई अभिलेखात्मक प्रमाण
अकेले चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही आने सैन्यबल एवं उपलब्ध नहीं हो जाते तब तक इस चर्चा को यही रोक बुद्धिकौशल से शको एव हूणो जैसे महान विजेताओं के दात दिया जावे । सच्चाई तो यह है कि श्री विशाखदत्त अपने खट्टे कर दिए थे । गुप्तकाल अपने साहित्य, संगीत, शिक्षा चरित्रनायक चन्द्रगुप्त से इतने अधिक प्रभावित दिखाई कला आदि की अभिवृद्धि के लिए इतिहास में विख्यात है।
देते है कि वे उसकी छवि की उज्जवलता तब तक नही
उभार पाते हैं जब तक कि उसके अनुज की हीनता न इसी वश के सस्थापक सम्राट चन्द्र गुप्त प्रथम के पुत्र
प्रकट कर दें, इसीलिए साहित्य की ओट मे वे रामगुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के दो पुत्र हुए प्रथम रामगुप्त जो कात्र
को कायर और डरपोक लिख गए। गुप्त के नाम से भी प्रसिद्ध था द्वितीय चन्द्रगुप्त द्वितीय जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी
यथार्थता यह है कि जब देवी ध्र वस्वामिनी का चन्द्र गुप्त का बड़ा भाई रामगुप्त ( काचगुप्त ) था
स्वयबर हुआ तो वह चन्द्रगुप्त द्वितीय पर आसक्त थी Lजिसे जन श्रुतियो ने इतिहास मे कायर और डरपोक
और उसी को वरण करना चाहती थी पर राजगद्दी पर प्रसिद्ध कर दिया और जो शको से पराजित हो अपनी पत्नी
उस समय रामगुप्त (काच गुप्त) विराजमान था, अतः ध्र व स्वामिनी को शको को समर्पित करने के लिए तैयार
उसका (ध व देवी) विवाह राम गुप्त से कर दिया गया, हो गया था पर इसका अनुज चन्द्रगुप्त द्वितीय यह सब
बस इसी तीखातीखी मे रामगुप्त को बदनाम करने का कुछ सहन न कर सका और उसने गुप्तवश की मर्यादा
अवसर मिल गया और कालान्तर में 'देवी चन्द्रगुप्तम्' सरक्षण हेदु स्वय ध्रुवस्वामिनी का रूप धारण कर शक
के रूप में विशाखदत्त इस ऐतिहासिक मूठ को तथ्य के राज को पराजित किया था और अपने कुल की मर्यादा प्रर्वतक सिद्ध हुए। जिससे राम गुप्त हीन चरित्र और बचाई थी।
चन्द्रगुप्त द्वितीय श्रेष्ठ चरित्र वाला चित्रित हुआ और
विवाह की ईर्ष्या से प्रज्जवलित चन्द्रगुप्त ने अपने अग्रज रामगुप्त को कायर और डरपोक सिद्ध करने के पीछे
रामगुप्त (काचगुप्त) का बध कर दिया जिससे आगे के एक बड़ा भारी एतिहासिक षड्यन्त्र रहा है जो इतिहास के
लिए कोई प्रमाण ही अविशिष्ट न रहें। विद्वानो को अब अनुभव होने लगा है। क्योकि रामगुप्त की कायरता व डरपोकपने को सिद्ध करने के लिए अभी
सन् १९५० मे विदिशा से प्राप्त सिक्को में राम गुप्त काई ठोस ऐतिहासिक अभिलेख उपलब्ध नहीं हुए है, सब का चित्र अकित है और उसे 'महाराजाधिराज' की पदवी से पहले ११ वी सदी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटककार श्री से अलकृत किया गया है । सन् १९६५ में विदिशा के विशाखदत्त ने 'देवी चन्द्रगुप्तम्' नाटक लिखकर इस दुजना गांव मे बुलडोजर चलाते हुए जमीन से खदाई में षड्यत्र को उभारा है । और राम गुप्त को पृष्ठ भूमि में तीन तीर्थकरो चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त और पप प्रभु की प्रतिधकेल दिया ।
माएं उपलब्ध हुई हैं यद्यपि हम प्रतिमानों में मांछन (चिन्ह)