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________________ १०, ११, कि०४ भनेकान्त रहित निर्मल स्वरूप में प्रकट होती है तब उसका वह रूप केवल शब्दों द्वाग बतलाने का प्रयत्न करते है-उसका दिगम्बरी होता है और दिगम्बरी रूप को प्रकट करने के प्रभाव लोगों पर नहीं पड़ता। -जरा सोचिए असलियत मार्ग अथवा सिद्धान्तों का अवलम्बन लेने वाला दिगम्बर क्या है ? मार्गी कहलाता है। जैन तीर्थंकरों ने इसी मार्ग का अव- ४. भूल जो आज भी दुहराई जा रही है ! लम्बन ले स्वयं दिगम्बरत्व की प्राप्ति की और इसी मार्ग समाचारों से स्पष्ट है कि १५० वर्ष पूर्व एक भूल को दूसरों के लिए उजागर किया। जो लोग दिगम्बर-रूप किन्ही दि. जैन भट्टारक महाराज ने कुम्भोज पहाड़ी का अथवा दिगम्बर मार्ग को सम्प्रदाय की सज्ञा देते हैं, वे एक मन्दिर, मन्दिरमार्गी श्वेताम्बरों को देकर की; बाद भ्रम में हैं । यतः-सम्प्रदाय पूर्वाग्रहो से-पर-विकल्पो से मे पहाड़ी पर उन्हें धर्मशाला बनाने दी। जिसका दुष्परि लिया और दिगम्बरत्व वस्त के निर्मल- णाम आज उभर कर सामने आया और फल-स्वरूप स्वाभाविक स्व-रूप की प्राप्ति का मार्ग । फलत: ऐसा बाहुबली की मूर्ति पर पत्थर फेंके गए और त्याग के मत समझना चाहिए कि जब कही सम्प्रदायातीत दृष्टि का रूप, तपस्वी ज्ञान प्रसारक ६२ वर्षीय वृद्ध दिगम्बर मुनि समन्तभद्र महार'ज का अपमान हुआ। जिसके निराकरनाम लिया जाय तब वहां बस्तु का स्वरूप अथवा दिगंब णार्थ मुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज को अनशन व अन्नरत्व ही लक्ष्य है और इसी लक्ष्य प्राप्ति का आदर्श मार्ग त्याग करना पड़ा है और सारी दि. समाज संतप्त और तीर्थकरो का मार्ग है, इसे ही धारण करना चाहिए। चिन्तित है। अन्य तीर्थो पर तो वर्षों से विवाद चलते ही लोग वर्षों से शोध-खोज की बातें करते हैं, इतिहासों रहे है। आज भी दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी को उन्ही में तत्तत्कालीन वेष-भूषा रीति-रिवाज आदि का अध्ययन में उलझे रहना पड़ रहा है। ऐसे में सावधानी की करते हैं, मिट्टी पाषाणों कलाकृतियो में तीर्थकरत्व धर्म आवश्यकता है। ओर दिगम्बरत्व की प्राचीनता खोजते हैं । और तो और हमारा मन्तव्य है कि हम देश और प्रान्त की अख. ऐसे लोग भी, जिन्हें पेय- अपय,-खाद्य-अखाद्य और सामिष डता, सामाजिक सद्व्यवहार और सदाचार के प्रचार निरामिष का तनिक विचार नही, जो स्वयं जनानुकूल प्रसार के मामले में सभी पंथ-सम्प्रदायो से कन्धे से कन्धा देवदर्शन, पूजन, स्वाध्याय आदि से सर्वथा अछुते हैं, जिन्हें भिड़ाकर चलें-एक दूसरे का सहयोग करें। पर धर्म सांसारिक विषय वासना, कीर्ति के साधन जुटाने से फुरसत संबंधी सैद्धान्तिक और आचार-विचार मूलक सद्-परम्पनहीं, वे दिगम्बरत्व के अनुरूप जैन की शोध खोज और राओं को आंच न आने दें, एक मे दूसरे के समावेश को प्रचार-प्रसार की बातें करते है। प्रश्रय न दें। यदि हम इसमें सावधानी न बरतेगे तो कालान्तर मे किसी की भूल का प्रायश्चित्त किसी दूसरे को ध्यान रहना चाहिए कि किसी सभा सोसायटी की इसी भाति करते रहना पड़ेगा जिस प्रकार भट्टारक सदस्यता या अधिकारीपने से, ऊपरी ग्रन्थ-ज्ञान होने से अथवा मीटिंगों में खुले बाहरी मचो पर भाषण झाड़ने से महाराज का भूल का परिमार्जन आज हम दिगबरो के गुरु कर्मठमुनि श्री विद्यानन्द जी महाराज को करना पड़ कुछ भी हाथ आने का नही, उल्टा दुष्प्रचार ही होगा। रहा है और दि. समाज चिन्तित है। दि० मन्दिरो मे यदि वास्तविक दर्द है तो दिगम्बरत्व के अनुरूप क्रिया के श्वेताम्बरी मूर्ति रखाना, दि० प्रकाशनों में श्वेताम्बरीय भाचरण को, अपने जीवन मे उतारना होगा। जब हम बातों-कथानकों का समावेश कराना, तीर्थक्षेत्रो मे साझकिया-रूप में स्वर परिणत होगे-तब बिना प्रयत्न के ही दारी बरतना आदि जैसी भूलें भी इसी जाति की है, जिन्हें प्रचार होने लगेगा । पूज्यवर्णी गणेश प्रसाद जी के शब्दो दूहराया जाना आज भी बन्द नही है और जो परम्परा में-'यदि हम अपने सिद्धान्त पर आपढ़ हो जावें-उसी को तो लोप करेगी ही कालान्तर मे वे किसी कोर्ट में भी के अनुसार प्रवृत्ति करने लगे तो अन्य लोग हमारे सिद्धान्त को अच्छी तरह हृदयगम कर लेंगे । परन्तु हम लोग अपने जरा सोचिए ! इस आपदा को टालने के प्रयत्न कैसे सिद्धान्तों को अपने आचरण या प्रवृत्ति से तो दिखाते नही, किये जायें ? -सम्पादक
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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