________________
१८१६ कि.४
अनेकान्त
की चर्चा उपलब्ध नही है। ज्ञान को स्वभावज्ञान और स्व-प्रकाशक मानकर आत्मा को स्व-पर प्रकाशक मानना विभावज्ञान इन दो निकायो में विभाजित कर जनदर्शन को ठीक नही है। क्योकि ऐसी मान्यता मे निम्नाकित दोष अपूर्व चिन्तन प्रदान किया है।"प्रवचनसार मे जिस केवल आते हैंशान को क्षायिकज्ञान कहा गया है वही नियमसार में स्व- १-शान को परप्रकाशक और दर्शन को स्वप्रकाशक भावज्ञान है। विभाव ज्ञान को पुन. दो भागों में विभाजित मानने से ज्ञान और दर्शन भिन्न-भिन्न हो जायेगे । क्योकि किया है-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान । २
दर्शन पर-द्रव्य को नही जानेगा। सम्यग्ज्ञान
२-दूसरा दोष यह है कि दर्शन आत्मा से भिन्न आचार्य ने संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान सिद्ध होगा क्योंकि आत्मा पर का भी प्रकाशक है लेकिन को सम्यग्ज्ञान कह कर मति आदि चार ज्ञानों को सम्य- दर्शन पर-प्रकाशक नही है। शान बतलाया है।"
३-जैन धर्म मे ज्ञान-दर्शन और आत्मा भिन्न नही मिण्याज्ञान
है। इसलिए ऐसा मानना चाहिए कि व्यवहार नय की मिथ्याज्ञान अज्ञान रूप होता है। इसके तीन भेद किए अपेक्षा ज्ञान पर-प्रकाशक है, इसलिए दर्शन और आत्मा गए है"-कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान । भी पर-प्रकाशक है।" निश्चयनय की अपेक्षा ज्ञान स्व. परोक्ष और प्रत्यक्षज्ञान
प्रकाशक है, इसलिए आत्मा और दर्शन भी स्वप्रकाशक आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान का विभाजन प्रत्यक्ष और है।" यदि यह माना जाय कि ज्ञान लोक-अलोक ज्ञय को परोक्ष रूप से भी किया है। उन्होंने इन्द्रियो और प्रकाश जानता है और स्वद्रव्य आत्मा को नहीं जानता, तो ऐसा को पर कह कर इनसे उत्पन्न होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहना ठीक नही है।" क्योकि ज्ञान जीव का स्वरूप है कहा है।" नियममार में आचार्य कहते हैं कि जो अनेक इसलिए वह आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को प्रकार के गुण-पर्यायों से युक्त समस्त द्रव्यो को नही देखता न जाने तो ज्ञान आत्मा से भिन्न हो जाएगा। आत्मा है वह उसे परोक्ष दृष्टि कहते है। इस विभाजन के ज्ञान है औरज्ञान आत्मा है इसलिए ज्ञान स्व-पर प्रकाशक अन्तर्गत मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान हैं। को रखा गया हैं।
(ङ) ज्ञान से जानने का तात्पर्य जो ज्ञान आत्मा से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्षज्ञान
आचार्य कुन्दकुन्द ने इस बात की निश्चय और व्यवकहलाता है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि मूर्त, अमूर्त हार नय के द्वारा व्याख्या की है कि ज्ञान से ज्ञेय को जानने चेतन, अचेतन एवं स्व और पर द्रव्यो को देखने वाला का तात्पर्य क्या है? ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रियज्ञान कहलाता है।"प्रवचनसार" ज्ञानो और ज्ञेय में शेय-ज्ञायक सम्बन्ध है में भी यही कहा गया है। प्रत्यक्षज्ञान की उपर्युक्त परिभाषा आचार्य ने बतलाया है कि ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान स्वरूप के अनुसार प्रत्यक्ष के अन्तर्गत केवल ज्ञान को ही रखा है और अर्थ ज्ञेय स्वरूप है। अर्थात् स्वरूप की अपेक्षा गया है।
दोनो भिन्न-भिन्न और स्वतन्त्र है। जिस प्रकार चक्षु-मूर्तिक (घ) ज्ञान को स्व पर प्रकाशता
पदार्थों से अलग रहकर उन्हे जान लेती है अर्थात् चक्षु न ज्ञान स्व-प्रकाशक है या पर प्रकाशक या स्व-पर ती मूर्तिक पदार्थों में प्रविष्ट होती है और न मूर्तिक पदार्थ प्रकाशक है इसका समाधान अर्धमागधी आगम में उपलब्ध चक्षु मे घुमते है। दोनों स्वतन्त्र रहते हैं। फिर भी पक्ष नही है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शान को स्व-पर प्रकाशक उन मूर्तिक पदार्थों को जान लेता है और मूर्तिक पदार्थ अपने स्वरूप बतलाकर उपर्युक्त शंका का समाधान नियमसार में स्वरूप को जना देते हैं। उसी प्रकार ज्ञानी और जय दोनो दिया है । यह उनकी अभूतपूर्व देन मानी गई है। के स्वतन्त्र रहने पर भी ज्ञानी पदार्थों अर्थात् शेयो मे घुसे
उन्होंने कहा कि ज्ञान को पर-प्रकाशक और दर्शन को बिना भी उन्हे जान लेता है और यशानी में प्रविष्ट हुए