SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म-ष्टि विवेकी विद्वानों के लिए 'प्रपदेस संत मज्भ 0 महाचन्द जैन समयसार ग्रन्थराज की पन्द्रहवीं गाथा के विषय | ही अवस्थायें पर्याय अपर्याय अपेक्षा से कहने में आती में अनेक विद्वानों के विभिन्न विचार दृष्टिगोचर हो रहे है अर्थात असंख्यात प्रदेशी और अप्रदेशी अवस्था हैं। जिन शासन के समीचीन सिद्धान्त का अपलाप न हो का पर्याय भेद ही है। प्रदेशत्व गुण की व्यजन पर्याय इसलिए इस गाथा के सम्बन्ध मे विवेकी विद्वानों के विचा- पर अपेक्षा (आकाश द्रव्य के प्रदेशो की अपेक्षा) से राथं कुछ तथ्य रख रहा हूं, आशा है इन पर अवश्य ही तो असंख्यात प्रदेशी है तथा स्वयं अपनी अपेक्षा से अप्रसर्वागीण रूप से चिन्तन किया जावेगा। देशी है लेकिन फिर भी शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव पन्द्रहवीं गाथा वस्तुपरक न होकर प्रयोजन परक शाश्वत निरपेक्ष ही है, वह तो वही है। गाथा है तथा इसका प्रयोजन भेद कल्पना निरपेक्ष निरंश आचार्य महाराज ने पर्याय भेदो का छठवी गाथा मे अखण्ड निज शद्वात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव का अनुभव निषेध करने के पश्चात सातवे गाथा में गूण भेदो का भी करना है। निषेध करके यह सिद्ध कर दिया कि आत्मा मे अनन्त कुछ विद्वान इस गाथा मे आये हुए अपदेस शब्द का गुणों का भेद भी नही है तब फिर पन्द्रहवी गाथा अखण्ड अर्थ अप्रदेश करके आत्मा को अप्रदेशी सिद्ध करने में लगे और निरश निज शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक स्वभाव के अनुहुए हैं तथा कुछ विद्वान आगम अनुसार आत्मा के असं भव के लिए निर्देश है उसमें असख्यात प्रदेशी और अप्रत्यात प्रदेशी होने के कारण इसका निषेध कर रहे है, देशी अवस्था की नर्माता : देशी अवस्था की चर्चा करना, व्यर्थ की चर्चा नहीं है तो जबकि आत्मा के अप्रदेशी अथवा असख्यात प्रदेशी होने और या है? का कथन तो वास्तव में पर्याय अपेक्षा से होता ही है। पर्याय भेद को गोण करके निज शुद्धात्म स्वरूप ज्ञायक पन्द्रहवी गाथा मे असख्यात प्रदेशी और अप्रदेशीपने स्वभाव का अनुभव करने के लिए पर्याय भेद का निषेध का कथन नही होने पर भी जो खीचतान करके जबरतो श्रीमद कुन्दकुन्दाचार्य महाराज ने छठवीं गाथा में प्रमत्त दस्ती से अपदेस शब्द का अर्थ अप्रदेश करते हैं, वह इस भी नहीं है और अप्रमत्त भी नही है कह कर किया था गाथा के तात्पर्य के साथ किस प्रकार से संगत बैठ सकती क्योंकि ये दोनो अवस्थायें पर्याय अपेक्षा से कहने में आती है, यह विचारणीय है । इस गाथा में प्रयुक्त "अप्रदेश संत है। पर्याय पर की अपेक्षा से प्रमत्त तथा स्व की अपेक्षा मज्झ" का अर्थ अप्रदेशी शान्त अंतस्तत्त्व में करने से क्षेत्र से अप्रमत कहलाती है लेकिन फिर भी शुद्धात्म स्वरूप अपेक्षा कथन हो जाता है जो कि भेद रूप विकल्पात्मक शायक स्वभाव निरपेक्ष ही है, वह तो वही है। अवस्था का ही कथन है। इसी प्रकार सत शब्द का अर्थ इसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी और अप्रदेशी अवस्था शांत करना भी तर्क संगत नही है क्योकि सत का वास्तको भी 'छठवीं गाथा के अनुसार घटित किया जावे तो विक अर्थ तो अत सहित होता है, शात नहीं इसलिए पहा इसका तात्पर्य होता है कि आत्मा असंख्यात प्रदेशी वास्तव में या तो किसी के अन्त का अथवा किसी के अन्त भी नही है और अप्रदेशी भी नहीं है क्योंकि ये दोनों सहित विषय का विचार करना चाहिए ।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy