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१८, वर्ष ३६, कि०३
अनेकान्त
तथा उमके उद्घाटन के समय प्रथम वीर-शासन जयन्ती आसपास सन्त-साधक सुदर्शन सेठ को तत्कालीन किसी का बृहद् आयोजन किया गया।
विदेशी नरेश ने सूली की सजा दे दी थी। वह सजा सर्वथा पिछले दशक में आगरा के सुप्रसिद्ध राष्ट्र सन्त अमर अन्यायपूर्ण थी। सुदर्शन शुद्ध परिणामपूर्वक मरे और उन्हें मुनि जी महाराज ने वहाँ "वीरायतन" नामक एक संस्था वही से निर्वाण की प्राप्ति हुई थी" | तभी से बहन की स्थापना की है, जो भगवान महावीर की पुण्यस्मृति में सिद्धक्षेत्र के रूप मे जैन इतिहास में प्रसिद्ध है। ईसापूर्व स्थानीय सामान्य जनता के बहुमुखी विकास एव नव-निर्माण चतुर्थ सदी के आसपास नन्द नरेश के महामन्त्री शकटाल में सर्वनोभावेन सलग्न है। इस संस्था की ओर से सार्व- के पुत्र स्थूलिभद्र एव गणिका कोशा की इतिहास-प्रसिद्ध जनिक विशाल एव आधुनिक साज-सज्जायुक्त चिकित्सालय, मौलिक एवं आध्यात्मिक घटनायें भी इसी स्थल पर घटी प्रारम्भिक विद्यालय संस्थापित हैं। अल्पमोली साहित्य- थी। तद्विषयक एक जीर्ण-शीर्ण स्मारक आज भी उस प्रकाशन एव सर्वोदयी नैतिक शिक्षा-प्रसार हेतु भी अनेक घटना को प्रकाशित कर रहा है। विभाग कार्य-सलग्न है।
बिहार के आधुनिक जैन इतिहास मे यदि आरा नगर पावापुरी को जैनियो का महान निर्वाण क्षेत्र माना के जैनियों एव उनके कार्यकलापो को चर्चा न की जाय तो गया। वहा से भ० महावीर के परिनिर्वाण की चर्चा वह अधूरा ही रहेगा । आरा नगर वैसे तो रामायणकालीन
मगे-नीमरी सदी के जैन-साहित्य में उपलब्ध है । कुछ नगर है । उस समय उसका नाम क्या रहा होगा, यह एक प्रमाणो के आधार पर वहां के एक प्राचीन जैन मन्दिर शोध का विषय है किन्तु मसाढ (प्राचीन महाशाल वनका जीर्णोद्धार सन् १९४१ मे कराया गया था और उसमे जि. भोजपुर) के प्राचीन जैन मन्दिर मे सुरक्षित एक जन महन्तियण वश के श्रावकों ने तीथकर महावीर के चरणो मूर्ति के लेखानुसार उसका प्राचीन नाम आरा नगर (उपकी स्थापना की थी। उस समय ये जैन श्रावक पावापुरी बनो एव बगीचो का नगर) था । यह लेख अनुमानतः ७वी एव उसके आमपाम के प्रक्षेत्र मे बहुसंख्यक थे किंतु काला- सदी का है। चीनी यात्री ह्वेनसांग पाटलिपुत्र जाते समय न्तर मे कुछ विषम परिस्थितियों में वे जैन धर्म से विमुख महाशालबन(मसाढ़ वर्तमान आरा से लगभग ४ मील दूर) हो गए।
एव आरामनगर (आरा) आया थ।। उसके बाद लगभग मन १९२५ ई० में गुणावा-क्षेत्र (नालन्दा) का जीर्णो- १८वी सदी तक के वहाँ के जैन कार्य-कलापों की जानकारी द्धार हुआ । अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के अनुसार इसका नही मिल सकी है। पराना नाम गुशिला-चैत्य है, जहा भगवान महावीर के १९वी सदी के मध्य मे यहां एक बड़ा ही तेजस्वी कुछ चतुर्मास (वर्षावास) हुये थे । यहां पर इन्दौर के धन
साहित्यकार हुआ, जिसकी साहित्यिक रचनाओं ने जैन कुबेर रावराजा सर सेठ हुकुमचन्द जैन ने लाखो रुपयो की
समाज मे धूम मचा दी। उसका नाम है महाकवि वृन्दालागत से एक विशाल जैन मन्दिर एवं धर्मशाला का
वनदास वि० सवत १९४८-१९०६] आजीविका हेतु वे निर्माण कराया था । मन्दिर मे १५-१६वी सदी की कुछ
तत्कालीन बनारस की एक टकसाल मे सेवाकार्य करते थे, जैन मूर्तिया प्रतिष्ठित हैं । सन् १९४७ में गया निवासी
अपने स्वाभिमान एव अक्खड़ स्वभाव के कारण अग्रेजों ने केशरीमल लल्लूमल ने यहाँ एक कलापूर्ण उत्तुंग मानस्तंभ
उन्हे कारागार मे बन्द कर दिया था। उनकी भक्तिका भी निर्माण कराया था।
चमत्कार के कारण कारागार का दरवाजा अपने आप सन् १९४० मे गुलजार बाग (पटना) स्थित कमलदह खुल गया था। इस कारण अंग्रेजों ने उनसे क्षमा याचना सिद्ध क्षेत्र का जीर्णीद्धार कर वहाँ पुरातन जैन मन्दिर का मागते हुए उन्हें मुक्त कर दिया था। इनकी सरस स्तुतियां नवनिर्माण किया गया। एक विशाल जैन धर्मशाला भी बन- समस्त जैन समाज में लोकप्रिय हैं । इनका पारिवारिक वाई गई । उक्त मन्दिर मे १६-१७वी सदी की जैनमूर्तियां भवन आरा की महाजन टीली न० २ मे अभी भी बना सुरक्षित हैं । यह वही स्थल है जहाँ ईसापूर्व ६वीं सदी के हमा है किन्तु काल के थपेड़ों ने उसे जर्जर कर दिया है।