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अनेकान्त चाइवासा" र त्यागी वासः (उदासीनाथम)-वह स्थल की घटनाओं को ऐतिहासिक न भी मानें तो भी २३वे
जहाँ गृहविरत त्यागी, व्रती, संयमीगण रहकर तीर्थकर पार्श्वनाथ [ई०पू० ७७० वर्ष अर्थात् तीर्थकर संयम पालन एवं स्वाध्याय कर आत्म-कल्याण महावीर के परिनिर्वाण (ई० पू० ५२७) से २५० वर्ष कर सके।
पूर्व के समय मे बिहार-प्रान्त जैन धर्म का प्रधान केन्द्र संथाल संथार, संस्तार वह स्थल, जहाँ जैन साधु था। आधुनिक बिहार में जो लोग आदिवासी, सथाली
या सयमी व्यक्ति तथा साध्वियों सल्लेखना- एवं सराक जाति के नाम से प्रसिद्ध है तथा जिन्हें दुर्भाग्य पूर्वक देह त्याग कर सकें।
से पिछड़े वर्ग का माना जाता है, उनके विषय मे स्वयंमगधर मा+गद्धि-वह आध्यात्मिक क्षेत्र, जहां मूग- सेवी संस्थाओं ने सर्वेक्षण कराया है रहित होकर सयमशील जीवन व्यतीत किया गोत्र. नाम व उनके सामाजिक रीतिर
गोत्र, नाम एव उनके सामाजिक रीति-रिवाजों के आधार जा सके।
पर यह सिद्ध हुआ है कि उक्त जातियो के लोग विशेषतया विदेह-वि+देह =देह के प्रति ममता भाव त्याग कर
सराक जाति के लोग तीर्थकर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। साधनापूर्ण जीवन व्यतीत करने योग्य क्षेत्र ।।
यह 'सराक' शब्द श्रावक (आचारवान जैन गृहस्थ) का वज्जित वज्जितोर वजित. वह क्षेत्र जहाँ भौतिक
अपभ्र श रूप है। संथाल परगना में अभी यद्यपि उत्खनन लिप्सा के त्याग की भावना उदित हो और आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते रहने की
(Excavations) कार्य अत्यल्प ही हुआ है, फिर भी वहाँ शिक्षा प्रदान की जाय।
अनेक प्राचीन जैन-मूर्तियां मिली है। उनसे भी उक्त तथ्य गया"गता: वह स्थल, जहा से निर्वाण की प्राप्ति हो। का समर्थन होता है" कर्मनासा"र कर्मनाशा वह प्रक्षेत्र जहाँ साधना करके उपलब्ध जैन सन्दर्भो के अनुसार मगध सम्राट नन्द
ज्ञानावरणादि अष्ट दुखद-कमों को नष्ट कर मौर्य वशी अनेक नरेश जैन धर्मानुयायी थे। उन्होने जैन निर्वाण पद प्राप्त किया जा सके।
धर्म को न केवल राष्ट्रीय धर्म के रूप मे प्रतिष्ठा दी चुकि प्राच्य कालीन बिहार की जन-भाषा अथवा अपितु उसके उद्धार एव प्रचार-प्रसार के लिए भी महत्त्वराष्ट्र-भाषा प्राकृत थी अत: वहां के तत्कालीन नगरों पूर्ण कार्य किए। हाथी गुम्का शिलालेख का वह प्रसंग आदि के नामों की प्राय: प्राकृत-भाषात्मक थे । इनके उदा. स्मरणीय है, जिनके अनुसार कलिंगनरेश खारवेल (ई० पू० हरण ऊपर दिए ही जा चुके हैं। प्राकृत-भाषा के जन भाषा दूसरी सदी) मगध सम्राट वृहस्पति मित्र पर आक्रमण कर एवं राष्ट्र भाषा होने के कारण ही उसमें लोकनायक अपनी राष्ट्रीय-मूर्ति-कलिंग जिन (प्रथम तीर्थकर आदिसर्वोदयी नेताओ-महावीर एव बुद्ध ने अपने उपदेश दिए नाथ की मूर्ति) को छीनकर वापिस कलिंग मे ले आए दिये थे एक मगध के सम्राट प्रियदर्शी अशोक ने अपनी थे। इस प्रसग में मेरा अनुमान यह है कि उक्त शिलाधर्माज्ञाए समस्त भारत तथा सीमावर्ती प्रदेशो मे सर्वगम्य लेख में जिसे "कलिंगजिन" कहा गया है, वह मूर्ति पूर्व मे होने कारण प्राकृत-भाषा मे ही जारी की थी। भाषा- 'मगधजिन' के रूप मे प्रतिष्ठित रही होगी। क्योकि नन्द वैज्ञानिको के अनुसार वर्तमान भोजपुरी, मैथिली, मगही, राजाओ के समय मे जैन-मूर्तियों का निर्माण होने लगा सथाली तथा बगला, उड़िया, असमिया, ब्रज, अवधी, था। वह 'मगधजिन' जब कलिंग पहुंची तो वहां वही मूर्ति मराठी, राजस्थानी, गुजराती, पजाबी एव काश्मीरी आदि 'कलिंगजिन' के नाम से प्रसिद्ध हो गई । इस प्रकार उस आधुनिक बोलियों अथवा भाषाओं का विकास विविध ऐतिहासिक मूति का आवागमन होता रहा। कभी वह मगध प्रादेशिक-प्राकृतो से ही हुआ है।
से कलिंग ले जाई गई तो कभी कलिंग से वापिस मगध मे वंशानुक्रम-परम्परा, मूर्तिकला एवं
ले आई गई और फिर कलिंग वापिस ले जाई गई। उसका पुरातत्त्व को दृष्टि से
नाम परिवर्तन भी (मगधजिन अथवा कलिंगजिन के रूप यदि जैन पुराणो मे वर्णित ई० पू० की सहस्राब्दियो मे) उसी क्रम से होता रहा । अन्ततः कलिंग मे जाने के