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________________ बिहार में जैन धर्म : अतीत एवं वर्तमान वाद उस ऐतिहासिक मूर्ति का क्या हुआ ? इसकी जानकारी नही मिलती । १५ जन साहित्य लेखन की दृष्टि से भी देखा जाय तो गीता, बाइबिल एव कुरान के समान सम्मानित एव ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी सुप्रसिद्ध जैन ग्रन्थ " तत्त्वार्थाधिगम सूत्र भाष्य" की रचसा ईसा की दूसरी सदी मे पाटलिपुत्र मे ही हुई । " सुप्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र ( दूसरी सदी) ने शास्त्रार्थ" मे तथा जैन महाकवि हरिचन्द ( ११वी सदी) ने सस्कृत-गद्य के कठिन परीक्षण " मे यहा गौरवपूर्ण विजय प्राप्त की थी। लोहानीपुर पटना के उत्खनन में प्राप्त प्राचीन जैन मूर्ति एवं मन्दिर का ऐतिहासिक महत्त्व - जैसा कि पूर्व मे उल्लेख किया जा चुका है, लोहानीपुर (पटना) के उत्खनन मे जो कार्योत्सर्ग-मुद्रा की अद्वितीय जैन नग्न मूर्ति प्राप्त हुई है, उसे देखकर यह अनुमान होता है कि प्रथम बार में 'मगधजिन' के कलिंग मे ले जाए जाने के तत्काल बाद ही उस रिक्तता को पूर्ण करने हेतु उसकी प्रतिकृति बनवाकर उसे पाटलिपुत्र के एक नवनिर्मित कलापूर्ण जैन मन्दिर मे प्रतिष्ठित किया गया होगा और लोहानीपुर के उत्खन में वही मूर्ति एव मन्दिर के भग्नावशेष अब उपलब्ध हुए है। वस्तुतः अद्यावधि उपेक्षित प्रस्तुत विषय पर पुनर्विचार एवं निष्पक्ष गम्भीर अन्वेषण की महती आवश्यकता है। जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र पाटलिपुत्र : जैनेतिहास को प्रथम शतों के प्रारम्भ से बिहार में जंनधर्म का क्रमिक हामदृष्टि से - प्राचीन जैन संस्कृत एव प्राकृत साहित्य मे ई० पू० की ५वी सदी के पूर्वोक्त जनपदों के कुछ प्रमुख नगरों में घटित जैन धर्म विषयक अनेक ऐतिहासिक घटनाओ के उल्लेख मिलते है । मगध की राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) के वर्णन-प्रसंग में बताया गया है कि यह वही पावन स्थान है जहा अन्तिम श्रुतवली आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) ने वशी प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त ( ई० पू० ३६३) को जैनधर्म में दीक्षित कर उसे अपना शिष्य बनाया था और उसके साथ दक्षिण-भारत की यात्रा की थी।" पाटलिपुत्र मे ही ई० पू० ३७५ के आसपास अर्धमागधी प्राकृत के जैनागमों को लिपिबद्ध कर उन्हे सुरक्षित रखने हेतु प्रथम सगीति का आयोजन किया गया था।" यही पर नन्द एव मौर्यकालीन जैन मूर्तिया भी प्राप्त हुई। ये मूर्तिया न केवल जैनकला के इतिहास मे अपितु भारतीय मूर्तिकला के इतिहास मे भी सर्वप्रथम मानी गई हैं । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो मोहन-जो-दारो एवं हडप्पा मे प्राप्त मूर्तियों की कला यदि आदिम अथवा प्रारम्भिक है, तो लोहानीपुर की जैन-मूर्ति भारतीय मूर्तिकला का चरम विकसित रूप है। उक्त कुछ तथ्यों से विहार के साथ जैनधर्म के अटूट सम्बन्धो की जानकारी आसानी से मिल जाती है और उनसे यह सिद्ध हो जाता है कि वह बिहार का एक प्रमुख महान धर्म था । अतः यह कहने में कोई संकोच नही किया जा सकता कि बिहार के निर्माण में तथा उसे सुयश एव गौरवपूर्ण स्थान दिलाने में उसका योगदान अविस्मरणीय है । मौर्य साम्राज्य की समाप्ति के बाद कुछ नए गणतन्त्र अस्तित्व में आए किन्तु आपसी कलह के कारण वे दीर्घकाल तक नही टिक सके । गुप्तवशीय राजा समुद्रगुप्त (चौथी सदी) के समय तक उनकी समाप्ति हो गई । यद्यपि वैशाली का गणतन्त्र उस समय भी अपना कुछ प्रभाव बनाए हुए था । " समुद्रगुप्त के पिता चन्द्रगुप्त (प्रथम) ने उसी की सहायता से गुप्त साम्राज्य की स्थापना की थी। किन्तु राजनंतिक महत्वाकाक्षा बडी विचित्र होती है । उसने अपना प्रभुत्व स्थापित करने हेतु जहाँ यौधेय, आर्जुनायन एव मालव जैसे गणराज्यों को नष्ट किया उसी प्रकार वज्जी- विदेह के गणराज्य को भी आत्मसात कर लिया ।" इतिहास की यह लीला भी विचित्र ही मानी जायगी कि एक ओर वैशाली दोहित्र - शिशुनाग वशी राजा अजातशत्रु ने अपने ननिहाल के राज्य (वैशाली) को ध्वस्त किया तो दूसरे दोहित्र समुद्रगुप्त ने उसके रहे- सहे अस्तित्व को गणतन्त्रों के मानचित्र से सदा-सदा के लिए ही मिटा दिया । वैशाली के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने के कारण वहाँ के जैन धर्मानुयायी लिच्छिविगण आदि हिमालयवर्त तिब्बत, लद्दाख, भूटान, नेपाल, वर्मा आदि देशों में चले
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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