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१६ वर्ष ३६, कि० ३
अनेकान्त गए। वहाँ के वर्तमानकालीन कुछ राजवश आज भी बिहार में जैन धर्म का पुनर्जागरण-कालअपने को लिच्छिवियो से सम्बन्धित बतलाते हैं परिस्थिति- बिहार में जैन धर्म के पुनरुद्धार की दृष्टि से १९वी वश धर्म-परिवर्तन कर वे सभी बौद्धधर्मानुयायी हो गए। एव २०वीं सदी का काल एक नव जागरण काल के रूप यही कारण है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग को ७वी सदी मे स्मृत किया जायगा । सन् १८७० के आसपास बिहार में वहाँ केवल जैन मन्दिरों एव भवनो के खण्डहर ही में राजनैतिक स्थिरता, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन दिखाई दिए थे। वहां उसे जैनियों की संख्या अत्यल्पमात्रा की समाप्ति, भारतीय-प्राच्य-विद्या के अनेक देशी-विदेशी में ही दिखाई दी थी।
विद्वानों द्वारा ऐतिहासिक खोजों के प्रति गहरी अभिरुचि १३वीं सदी के तिब्बती यात्री धर्मस्वामी को वैशाली अंग्रेजों के शासन की स्थापना तथा उसके द्वारा बिहार के में यह जानकारी मिली थी कि तुरुष्क सेना के आक्रमणों आर्थिक-बिकास के क्रम में खान एवं अन्य उद्योग-धन्धों के भय से वहां के निवासी भाग गए थे। इतना ही नही, का क्रमिक विकास होने लगा। उनसे आकर्षित होकर उस समय अग-चम्पा एव पाटलिपुत्र, जो कि उस समय व्यापारिक दृष्टिकोण से अनेक जैन-परिवार बिहार में आने महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र थे, वे भी आक्रान्ताओं के भय लगे और वे धीरे-धीरे यही बसने लगे। इनकी तथा अन्य से उजाड़ हो गए थे। इस प्रकार वैशाली एव उसके स्थानीय मूल निवासी जैनियो की प्रेरणा से अनेक जैन समीपवर्ती प्रदेशो में जैन धर्म की स्थिति नगण्य हो गई। साधुओ एव साध्वियो के भी बिहार मे पुन. बिहार जैन धर्मानुयायियो के नष्ट-भ्रष्ट अथवा पलायन के कारण (आवागमन) होने लगे और जैन-मदिरो, स्वाध्यायशालाओ, वज्जी-विदेह एव मगध से जैन धर्म का प्रभाव प्रायः समाप्त पाठशालाओ एव औषधालयो का पुनरुद्धार अथवा होता गया तथा वहा क्रमशः ब्राह्मणो का प्रभाव बढ़ने निर्माण होने लगा । व्यापारी होने के कारण जैनियो ने लगा।
व्यापार की सम्भावना का पता लगाकर अपनी-अपनी इस प्रकार महावीर-निर्वाण (ई० पू० ५२७) के बाद हाच के अनुसार बिहार के विभिन्न नगरो को अपना कार्य लगभग पांच सौ वर्षों तक जिसने भारतीय सीमाओं को पार क्षेत्र बनाया। से जैन-बहुल नगरो मे आरा, ईसरीबाजार कर एशिया" एव यूनान" की विचारधारा को प्रभावित औरगाबाद कटिहार, कतरास, गया, गिरिडीह, गुणावा, किया और जिसने भारत, विशेषतया बिहार के चतुर्दिक छपरा, झरिया, झूमरी-तिलया, डालटनगज, डालमियानगर जन-जीवन में आध्यात्मिकता तथा अहिंसा एव अपरिग्रह की धनबाद, नवादा, बाढ, वारसोइघाट, बेगूसराय, पावापुरी, अमृत-स्रोतस्विनी प्रवाहित की वही जैन धर्म विविध विषम पूर्णिया, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मुगेर, रफीगज, राजगृही, परिस्थितियों के कारण अपने मूल केन्द्र में ही प्रभावहीन राची, सम्मेत शिखर, एब हजारीबाग आदि प्रमुख है। हो गया । यद्यपि मध्यकालीन जैन-साहित्य मे, बिहार में पाश्चात्य एवं प्राच्य विद्वानों की देनजैन धर्म की स्थिति के कुछ साहित्यिक-सन्दर्भ तथा जैन १९वी-२०वी सदी मे जैन धर्म के प्राचीन गौरव के तीर्थ यात्रा सम्बन्धी साहित्य अवश्य मिलता है किन्तु उससे प्रकाशन की दिशा मे हर्मन याकोबी, बुहलर, सर विलियम एक अन्तः सलिला नदी की तरह, जैन धर्म की स्थिति का जोन्स, जेम्स फर्ग्युसन, कनिंघम, स्पूनर ग्लाख, स्मिथ, डॉ. केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है । वस्तुतः वह एक वाशम, डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल, डॉ. आर. डी. समयसाध्य शोध का विषय है। वर्तमान में उससे जैन बनर्जी, डॉ. उपेन्द्र ठाकुर एव डॉ. योगेन्द्र मिश्र का नाम धर्म की सर्वाङ्गीण गतिविधियो को समझ पाने मे विशेष बड़े ही गौरव के साथ स्मरण किया जाएगा जिन्होने सहायता नहीं मिल रही है। यथार्थतः हमारे इतिहास- अपनी विविध खोजो मे प्राप्त बहुमूल्य सामग्रियो के आधार कारों की उपेक्षा के कारण ही बिहार के तत्कालीन जैन पर निष्पक्ष दृष्टि से जैन धर्म की प्राचीनता को प्रकाशित धर्म का वह एक महान ऐतिहासिक अध्याय अभी तक कर न केवल मव जागरणकाल के बिहार के जैनियो को अन्धकाराच्छन्न जैसा ही बना हुआ है।
प्रोत्साहित किया; अपितु भारतीय इतिहासकारों को भी