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________________ श्रीलंका और जैनधर्म D 'इतिहासमनीषो' डा० ज्योतिप्रसाद जैन श्रीलका, लंका, सिंहलद्वीप या सीलोन भारतवर्ष के आदि प्रदेशों से गये प्रवासियों की संख्या भी पर्याप्त है। सुदूर दक्षिण में तथा भारतीय भूभाग के निकटतम स्थित प्राचीन जैन अनुश्रुतियों के अनुसार भोगयुग के अव. एक विशाल द्वीप है। इसका आकार सीधी रखी नाश- सान पर प्रथम तीर्थकर. आदिदेव भगवान वृषभनाथ ने पाती जैसा है, जिसकी अधिकतम लम्बाई उत्तर-दक्षिण कर्मयुग एव मानवी सभ्यता का ॐ नमः किया था तथा लगभग ५०० कि० मी०, अधिकतम चौड़ाई पूर्व-पश्चिम समाज एवं राज्य की व्यवस्था की थी। भगवान के एक लगभग २५० कि० मी. तथा क्षेत्रफल लगभग ८०,००० वर्ग उपनाम इक्ष्वाकु पर मानवों का इक्ष्वाकुवश प्रसिद्ध हुआ कि. मी. है। कुमारी अन्तरीप या कन्याकुमारी से लका जिसकी शाखा उपशाखाओं मे आगे चलकर सूर्यवश, के पश्चिमी तट की दूरी लगभग २५० कि. मी. है। चन्द्रवश एव हरिवंश प्रसिद्ध हुए। उस युग में प्राय. संपूर्ण मनार की खाड़ी श्रीलंका को भारत के दक्षिणी-पूर्वी तट त्तरापथ मे उक्त इक्ष्वाकुवशी क्षत्रियों की ही प्रभुसत्ता से पृथक करती है । तमिल देशस्य नाग पट्टिनम से थोड़ा थी। भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत इस महादेश के प्रथम दक्षिण में भारतीय भूभाग को श्रीलका के उत्तरी सिरे पर चक्रवर्ती सम्राट हुए और उन्ही के नाम पर वह भारतवर्ष स्थित जफना बन्दरगाह से लगभग ५० कि० मी० चौड़ा कहलाया। उसी युग मे मनुष्यों की एक अन्य जाति थी पाक जलडमरूमध्य अलग करता है। निकट ही सेतुबंध जो विद्याधर कहलानी थी। उसके नेता नमि ओर विनमि रामेश्वरम अथवा 'आदम का पुल' स्थित है। द्वीप के नाम के दो भाई थे। उन्हे वेताढ्य अथवा विजयार्ध पर्वत दक्षिणी-पश्चिमी तट पर स्थित श्रीलंका की वर्तमान की उत्तर एव दक्षिण श्रेणियों में सुखपूर्वक निवास करने राजधानी कोलम्बो है, द्वीप के प्रायः मध्य मे प्राचीन नगरी की व्यवस्था हुई । उक्त विद्याधरों के वंशजो में आगे चलकैन्डी स्थित है और उत्तर पूर्वी तट पर त्रिकोमाली। कर ऋक्ष या राक्षस वंश और वानरवंश नाम की दो वश कुछ विद्वानों का कहना है कि चीनी भाषा के 'सेल' शब्द परम्पराएं सर्वाधिक प्रसिद्ध हुई। ये तब भी मनुष्य ही थे, से. जिसका अर्थ रत्न है, संस्कृत का सिंहल और अंग्रेजी का और प्राय: जिनधर्म भक्त थे। लेकिन ज्ञान-विज्ञान एवं सीलोन बने, अतएव सिंहलद्वीप और रत्नद्वीप पर्यायवाची हैं। विद्याओं में अत्यन्त कुशल होने के कारण विद्याधर कहप्राचीन जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मणीय साहित्य में लंका, सिंहल- लाते थे । एकवंश का राज्य-चिह्न एवं ध्वज-चिह्न कपि या द्वीप और रत्नद्वीप के अनगिनत उल्लेख प्राप्त होते हैं, बानर होने से वह बानरवंश कहलाया, दूसरे ने ऋक्षद्वीप जिनसे प्रतीत होता है कि भारतवर्ष के साथ इस द्वीप के या राक्षसद्वीप को अपनी सत्ता का केन्द्र बनाया अतः वह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक राक्षस वश कहलाया। उक्त राक्षसद्वीप के मध्य में त्रिकसम्बन्ध रादुर अतीत से ही पयाप्त घनिष्ट रहते आये हैं, टाचल पर्वत था जिस पर उसकी अत्यन्त भव्य राजधानी जिनके कारण यह द्वीप अखिल भारतवर्ष का ही एक लंकापुरी का निर्माण हुआ। राजधानी के नाम पर पूरा अभिन्न अग जानामाना जाता रहा है। वर्तमान मे श्री द्वीप ही लका कहलाने लगा। स्वर्ण रत्न आदि की प्रचुरता लंका के अधिकांश निवासी बौद्ध धर्मानुयायी है। गत दो- के कारण रत्नद्वीप भी कहलाया। यह कहना कठिन है कि तीन सौ वर्षों में धर्म परिवर्तनों के परिणामस्वरूप ईसाई लंका का ही अपरनाम रत्नद्वीप था अथवा वह उसके और कुछ मुसलमान भी है तथा भारतीय मूल के तमिल निकटस्थ कोई अन्य एवं अपेक्षाकृत छोटा द्वीप पा।
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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