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________________ जैनधर्म-दर्शन में पाराधक की अवधारणा डा० गुलाबचन्द जैन आराधक का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति होता है इसके (४)तपाराषक-देश विरत आदि नष्ट कषाय वाले लिए वह जीवन पर्यन्त सतत साधना करता है। आचार्य अपने अनुरूप उत्तम आचरण वाले, शुद्ध चित्त युक्त वट्टकेर ने इसके स्वरूप को बतलाते हुए लिखा है तपाराधक कहलाते हैं। आराधक निर्मोह, अहकार रहित, क्रोधादिक कषायों से जो आराधक कषाय रहित, जितेन्द्रिय निर्भय व दर पचेन्द्रियो का निग्रह करने वाला, परीषहादिक को चारित्राचरण करने मे तत्पर है उनका प्रात्यख्यान सुख सम्मान पूर्वक सहन करने वाला तथा सम्यग्दर्शन से युक्त पूर्वक सम्पन्न होता है। इस प्रकार जो आराम गरीर होता है इन गुणों से युक्त होकर वह समाधि पूर्वक प्राणों त्याग के काल में प्रत्याख्यान करता है उसकी आहारादिक का त्याग करता है। आ० देवसेन के अनुसार-जो पुरुष चार संज्ञाओं में विल्कुल अभिलाषा नहीं रहती है। धैर्यकषायों से रहित हो, भव्य सम्पदृष्टि, सम्यग्ज्ञान का वान ऐसे उस क्षपक को आराधना का उत्तम फल अर्थात धारक, वाह्य व आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह से मोक्ष प्राप्त होता है। रहित हो, ससार के सुख से पराङमुख, विरागी, औपशमिक लेश्या के प्राश्रय से प्राराधक के मेदसम्यग्दर्शन का धारक हो, सभी तपों का तपनेवाला, आत्म लेश्या की दृष्टि से आराधक के उत्तम, मध्यम और स्वभाव में लीन, पर पदार्थों से जायमान सुख से रहित जघन्य तीन भेद होते है - और रागद्वेष से विनिर्मुक्त हो वह मरणपर्यन्त अराधक उत्कृष्ट र धक-जो क्षषक शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट कहा जाता है। ओपनियुक्ति में लिखा है जो पांचो अंश रूप से परिणत होकर मरण करता है वह नियम से से इन्द्रियों से गुप्त हैं अर्थात् उन्हे अपने आधीन रखता है, उत्कृष्ट आराधक होता है । क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात मन आदि तीनो करणो मे सावधान है, तथा तप, नियम चरित्र और क्षायोपशमिक ज्ञान की आराधना करके क्षीण बसयम में सलग्न है, वह आराधक कहलाता है।' मोह होता है और वह बारहवां गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह मेव:-दर्शन, ज्ञान, चारित्र ओर तप इन चार होने के पश्चात् अर्हन्त होता है। प्रकार की आराधनाओ के भेद से आराधक के भी चार मध्यमाराधक-शुक्ल लेश्या के शेष मध्यम और भेद हो जाते है।' जो इस प्रकार है : जघन्य अंश तथा पपलेश्या के उत्कृष्ट मध्यम और अधन्य (१) वर्शनाराषक-उपशम तथा वेदक सम्यग्दर्शन के अंश रूप से परिणित होकर मरण करने वाला क्षपक मध्यम पात्र निर्मल परिणाम वाले तथा उनके योग्य गुणो वाले आराधक होता है। जीव सम्यकत्व (दर्शन) के आराधक होते हैं। जघन्याराधक-तेजोलेश्या के अंश रूप से परिणत (२)मानाराषक-मति आदि छद्मस्थ ज्ञान युक्त तथा होकर यदि मरण करता है तो वह जघन्य आराधक उनके योग्य गुण वाले तथा सुविशुद्ध परिणाम बाले होता है। मानाराधक कहलाते हैं। जो क्षपक जिस लेश्यारूप से परिणत होकर मरण] (३) चारित्राराषक-देश विरत आदि नष्ट कषाय करता है वह उसी लेश्यावाले स्वर्ग में उसी लेश्यावाला बाले, बढ़ती हुई शुभ लेश्या वाले तथा शील गुण से ही देव होता है। जो पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या को विभाजित चारित्राराधक कहलाते है। भी छोड़कर लेश्या रहित अयोग अवस्था को प्राप्त होता
SR No.538036
Book TitleAnekant 1983 Book 36 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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