Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनमत में ईश्वरत्व की अवधारणा
कार्य का कर्ता या कारण नहीं कहा जा सकता। जैन आश्चर्य करते हैं कि किस प्रकार एक अनिर्माता ईश्वर अचानक और तुरन्त एक स्रष्टा बन सकता है। इस प्रकार की धारणा के आधार पर किस प्रकार की सामग्री से संसार की रचना की गयी, इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन होगा।
जैन तर्क करते हुए कहते हैं कि संसार को बनाने के पूर्व वह किसी न किसी रूप में विद्यमान था या नहीं ? यदि कहा जाय कि यह सब ईश्वर की अनालोच्य इच्छा के ऊपर निर्भर करता है तो हमें समस्त विज्ञान एवं दर्शन को ताक पर रख देना पड़ेगा। यदि पदार्थों को ईश्वर की इच्छा के ही अनुकूल कार्य करना है तो पदार्थों के विशिष्ट गुण सम्पन्न होने का क्या कारण है ? दूसरे विभिन्न पदार्थों का विशिष्टधर्म सम्पन्न होना भी आवश्यक नहीं है, यदि वे परस्पर परिवर्तित नहीं हो सकते । यदि ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है तो जल जलाने का और अग्नि ठंढक पहुँचाने का काम भी कर सकते थे। यथार्थ में भिन्न-भिन्न पदार्थों के अपने विशिष्ट व्यापार हैं जो उनके अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल हैं और यदि उनके वे व्यापार विनष्ट हो जायें तो उन पदार्थों का भी विनाश हो जायेगा।
जैनों का कहना है कि अगर ईश्वर को विश्व का कर्ता भी मान लिया जाय तो यह प्रश्न उठता है कि-ईश्वर ने किस प्रयोजन से यह रचना की है ? क्या उसने स्वार्थ साधना से रचना की है अथवा करुणा से ? प्रथम विकल्प अग्राह्य है। ईश्वर पूर्ण है । उसकी कोई भी इच्छा अतृप्त नहीं है । वह आप्तकाम है। इसलिए वह स्वार्थभावना से परे है । स्वार्थ से उसने विश्व की रचना नहीं की है। क्या करुणावश उसने रचना की है ? करुणावश भी वह विश्व की रचना नहीं कर सकता। करुणा का अर्थ है-दूसरों के दुःख को देखकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करना। विश्व की उत्पत्ति के पूर्व दुःख की उपस्थिति और उसके प्रति सहानुभूति की कल्पना करना निराधार एवं युक्तिरहित है। इसलिए स्वार्थभावना या करुणा से प्रेरित होकर ईश्वर द्वारा विश्व की रचना की बात में कोई तथ्य नहीं है।
- उपर्युक्त तर्कों के आधार पर जैनधर्म ईश्वरवाद का खण्डन करता है। ईश्वर के अस्तित्व के साथ ही साथ वह ईश्वर के गुणों का भी खण्डन करता है।
सभी वस्तुओं का निर्माता होने के कारण ईश्वर को सर्वशक्तिशाली कहा जाता है। जैनियों का कहना है कि विश्व में ऐसे अनेक पदार्थ हैं जिनका निर्माता ईश्वर को नहीं कहा जा सकता । इसलिए उसे सर्वशक्तिशाली कहना अनुचित है ।
ईश्वर को एक माना गया है। पूर्वपक्षी यह तर्क देता है कि प्रत्येक पदार्थ का एक निर्माता होना ही चाहिए । उस निर्माता के लिए भी एक अन्य निर्माता की आवश्यकता होगी और इस प्रकार हम निरन्तर पीछे चलते चलेगें और इस परम्परा का कहीं भी अन्त नहीं होगा।
१. भारतीय दर्शन-डा. राधाकृष्णन (हिन्दी अनुवाद) राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली
१९६९, भाग-१, पे० ३०२-३०३ । २. वहीं।
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