Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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राजप्रश्नीय एवं पायासिराजञ्चसुत्त : तुलनात्मक समीक्षा 143 केशी कुमार के प्रश्नों से सन्तुष्ट होकर राजा पएसी अपनी एवं जीव को एक मानने वाली बुद्धि का त्यागकर श्रमणोपासक बन जाता है ।
- इसी विवेचन को दीघनिकाय के पायासिराजञ्चसुत्त में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है
उस समय पायासी राजन्य को इस प्रकार की बुरी धारणा उत्पन्न हुई थी कि यह लोक भी नहीं है, परलोक भी नहीं है, जीव मरकर पैदा नहीं होते और बुरे कर्मों का कोई फल नहीं होता है। एक बार वह श्रमण गौतम के शिष्य श्रवण कुमार कस्सप के पास जाता है और उन्हें अपने सिद्धान्त की जानकारी देता है। अपने सिद्धान्त की पुष्टि में वह पहला तर्क प्रस्तुत करता है कि मरे हुए लौटते नहीं है । जो अधार्मिक या धार्मिक पुरुष मरणासन्न होते थे, पायासी राजन्य ने उनके पास जाकर कहा था कि यदि आप नरक या स्वर्ग में उत्पन्न हो तो आकर उसे अवश्य बता दें किन्तु मरने के बाद कोई भी व्यक्ति उसके पास नहीं आया है । पायासी के तर्क का खण्डन करते हुए कुमार कस्सप कहते हैं कि नरक में उत्पन्न जीवों को यमों से यह आकर बताने की छुट्टी नहीं मिल सकती है तथा स्वर्ग में उत्पन्न देवों को मनुष्य योनि अपवित्र एवं दुर्गन्ध से युक्त होती है। अतः नरक या स्वर्ग में उत्पन्न जीव ने आकर आपको सूचना नहीं दी है ।२।।
पायासी अपने सिद्धान्त के समर्थन में दूसरा तर्क प्रस्तुत करता है कि धर्मात्मा आस्तिकों में भी मरने के प्रति अनिच्छा देखी जाती है। इसके उत्तर में कुमार कस्सप कहते हैं कि धर्मात्मा परिपाक की प्रतीक्षा करते हैं। इस प्रकार वे जितना अधिक जीते हैं, उतना ही अधिक पुण्य करते हैं । इसीलिए धर्मात्मा समय से पूर्व आत्मघात कर मरना नहीं चाहते हैं ।
पुनः पायासी अपने सिद्धान्त के पक्ष में तर्क उपस्थित करता है कि चूंकि मृत शरीर से जीव के जाने का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता है, अतः यह लोक एवं परलोक नहीं है । अपने तर्क को स्पष्ट करता हुआ वह कहता है कि चोर को हंडे में जीवित अवस्था में बन्द करके इंडे को बन्द किया जाता है। आंच पर तपाया जाता है। तत्पश्चात हंडे को खोलने पर मृत पुरुष तो मिलता है किन्तु उसका जीव निकलता हुआ दिखायी नहीं देता है । पुनःश्च मृत अवस्था में जीवरहित होने पर शरीर का वजन भारी हो जाता है। इसके उत्तर में कुमार कस्सप ने बताया कि जिस प्रकार दिवास्वप्न में आप यत्र-तत्र विचरण कर पुनः वापिस आ जाते हैं किन्तु पहरेदार नहीं देख पाते हैं तथा संतप्त लोहे को गोला हल्का होता है किन्तु ठंडा होने पर भारी हो जाता है, वही नियम शरीर और जीव के सम्बन्ध में जानना चाहिये ।"
१. इति पि नत्थि परो लोको... __दीघनिकायपालि खण्ड २, पु० २३६ । २. वही, पृ० २३८-२४२ । ३. वही, पृ० २४६-२४७ । ४. वही, पृ० २४७-२४९ । ५. वही, पृ० २४८-२५१ ।
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