Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
१०. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है । तब तब यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
उपर्युक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। इन तथ्यों का स्पष्टीकरण एवं समर्थन मूलाचार के इस संदर्भ से प्राप्त होता है-"उत्पात् से दिशा का अग्निवर्ण होना, तारा के आकार का पुद्गल का पड़ना, विजली चमकना, मेघों में संघट्ट से उत्पन्न वज्रपात, ओले का पड़ना, धनुष के आकार पंचवर्ण पुद्गलों का दीखना, दुर्गन्ध लाल पीले वर्ण के आकार का सांझ समय, बादलों से अच्छादित दिन, चन्द्रमा, ग्रह, सूर्य, राहु के विमानों का आपस में टकराना । लड़ाई के वचन, लकड़ी आदि से झगड़ना, आकाश में धुआँ के आकार रेखा दीखना, धरती कंप, बादलों का गर्जना, महापवन का चलना, अग्निदाह इत्यादि बहुत से दोषों में स्वाध्याय वजित किया गया हैं । अर्थात् दोषों के होने पर नवीन पठन-पाठन नहीं करना चाहिए । जब मेघरहित आकाश में उत्पान वायु धूलि और भस्म से भरा हुआ है, तब वह शस्य घातक एवं महाभयंकर होता है ।
वास्तव में प्राचीनकाल में शिक्षा के साधनों की अल्पता थी, अतएव प्रकृति का प्रकोप होने पर स्वाभाविक रूप से अध्ययन बन्द कर दिया जाता था।
औदारिक सम्बन्धी दश अनध्याय ११.१३. हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च की हड्डी, मांस, रूधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएं तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि माँस और रूधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सो हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक । बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है।
१४. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है ।
१५. श्मशान-श्मशान भूमि के चारों और सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है।
१६. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
१७. सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह पर्यन्त अस्वाध्याय काल माना गया है।
२. मूलाचार २७४-२७५ । भगवती धाराधना ११३।२६० । ३. भद्रबाहु संहिती ९।४८ ।
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