Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कलिकाल-सर्वज्ञ कुन्दकुन्द : शिलालेखों के परिप्रेक्ष्य में
___ डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी श्रमणधारा भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रवहमान है। शिलालेखों, पुरातात्त्विक विश्लेषणों, भाषा वैज्ञानिक एवं साहित्यिक अन्वेषणों के आधार पर अनेक विद्वान् अब यह स्वीकृत करने लगे हैं कि आर्यों के आगमन के पूर्व भारत में जो संस्कृति थी वह श्रमण या आर्हत-संस्कृति होनी चाहिए। यह संस्कृति सुदूर अतीत में जैनधर्म के आदि-तीर्थकर वृषभ या ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित हुई। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमामण्डित रही है, उनमें श्रम, संयम और त्याग-जैसे आध्यात्मिक आदर्शों का महत्वपूर्ण स्थान है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर से प्राप्त तत्त्वज्ञान और धर्मोपदेशों के आधार पर श्रमणसंस्कृति के अमर गायक और उन्नायक सहस्रों जैन आचार्यों ने प्रायः सभी भारतीय भाषाओं एवं सभी विधाओं में अपने श्रेष्ठ साहित्य के माध्यम से भारतीय साहित्य और चिन्तन-परम्परा में श्रीवृद्धि की है।
तीर्थकर महावीर और गौतम गणधर के बाद की उत्तरवर्ती जैन आचार्य परम्परा में यद्यपि अनेक महान् आचार्यों का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है, किन्तु उन सब में आचार्य कुन्दकुन्द ही एक महान् आचार्य है, जिनके परवर्ती प्रायः सभी आचार्यों ने अपने को उनकी सम्पूर्ण विरासत से जोड़ने में गौरव माना और उनकी मूल परम्परा तथा ज्ञान-गरिमा को एक स्वर से मान्य करते हुए कहा
मंगलं भगवदो वीरो मंगलं गोदमो गणी।
मंगलं कोण्डकुंदाइ, जेण्ह धम्मोत्थु मंगलं ।। यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द आज हमारे समक्ष नहीं है, किन्तु उनके लोक-कल्याणकारी तथा महान् आध्यात्मिक चिन्तन से युक्त विशेष साहित्य का स्पर्श करते हैं तब उनके अनुपम व्यक्तित्व के माध्यम से हम उन्हें आज भी अपने नजदीक पाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द अब से दो हजार वर्ष पूर्व हुए थे, किन्तु आज भी उनके चिन्तन की परम्परा इसलिए प्रवाहित है क्योंकि आज के इस भौतिकवादी युग में विश्व को उसकी अधिक आवश्यकता है। इसलिए हम उनके लोक-मंगलकारी कार्यों, उपलब्धियों एवं उनकी सम्पूर्ण चिन्तन परम्परा और अपने गौरवपूर्ण अतीत की स्मृति तथा विश्लेषण करके अपनी सुप्त चेतना को जगाते हैं साथ ही उनके महान व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से प्रेरणायें प्राप्त करते है । क्योंकि इन महापुरुषों की ज्योति जगाने के लिए उनकी वह स्मृति ही सर्वाधिक कारगर हेतु है । इस दृष्टि से शिलालेखों, स्तम्भ एवं मूर्तिलेखों, पट्टावलियों एवं ग्रन्थ प्रशस्तियों आदि का अध्ययन बहुत उपयोगी है।
*. अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी-पिन २२१००२
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