Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कलिकाल-सर्वज्ञ कुन्दकुन्द : शिलालेखों के परिप्रेक्ष्य में
233 वस्तुतः जैन शिलालेखों, ताम्रपटों, ग्रन्थ-प्रशस्तियों आदि का जैनधर्म, संस्कृति, इतिहास और समाज के इतिहास निर्माण में जितना महत्त्व है, उससे अधिक भारतीय इतिहास के लिखने में है । इनमें प्राचीन इतिहास की बहुमल्य सामग्री बिखरी पड़ी है । वैसे इन बहुमूल्य उपादानों की उपेक्षा भी कम नहीं हुई है, किन्तु सर्दी, गर्मी और वर्षा आदि के आघातों से सुरक्षित इन लेखों के अटल तथ्यों को अनदेखा कर देते से हमारी बहुत हानि होगी। क्योंकि शिलालेखों में मात्र इतिहास ही नहीं होता अपितु उनमें तत्कालीन चिन्तन, आस्था, समता एवं लोककल्याण की भावना का भी अपूर्व संयोजन रहता है। जहां इनमें उल्लिखित काल से अनेक आचार्यों के काल निर्णय और उनकी परम्पराओं के निर्णयों में बहुत सहयोग मिला है, वहां आनुषंगिक उल्लेखों से अनेक राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों की भी विशेष जानकारी प्राप्त हो जाती है। इसलिए देश, धर्म और समाज के इतिहास में ये अभिलेख सर्वाधिक प्रामाणिक भी माने जाते हैं। भारत के प्राचीन इतिहास का तभी से विधिवत् अध्ययन भी प्रारम्भ हुआ जब से इनके अध्ययन, अनुशीलन और महत्ता की ओर विद्वानों का ध्यान गया। जैन संस्कृति, इतिहास और साहित्य आदि के क्षेत्रों में तो बहुत उत्क्रान्ति हुई । अनेकों टूटी हुई कड़ियाँ जुड़ीं, नये-नये स्थानों, आचार्यों, श्रावकों, राजाओं और राजवंशों का ज्ञान हुआ । युगयुगान्तर का लेखा-जोखा करना सम्भव हुआ। पट्टावलियों से हमें दीर्घकालीन आचार्य परम्पराओं की लम्बी सूचियों की जानकारी हुई।
यहां हम शिलालेखों आदि की महत्ता को समझने की दृष्टि से उदयगिरि-खण्डगिरि की हाथी गुम्फा अभिलेख का उदाहरण प्रस्तुत करके अपने प्रतिपाद्य विषय पर आयेंगे । हमारे साहित्य में ईस्वी पूर्व की दूसरी शती के कलिंग नरेश महामेघवाहन महाराज खारवेल का कहीं कोई नामो-निशान नहीं पाया जाता, किन्तु उनका जीवन चरित्र उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर के पास उदयगिरि-खण्डगिरि की हाथीगुम्फा में जो लेख है, उसने जैनधर्म के प्राचीन इतिहास को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। इस लेख से यह स्पष्ट है कि वे वंशानुक्रम से ही जैन धर्मावलम्बी थे। उनका यह लेख ही "नमो अरहताणं, नमो सवसिधानं"
-रूप महामन्त्र से प्रारम्भ होता है। इस लेख में यह भी स्पष्ट उल्लिखित है कि जिस "कलिंग जिन" के रूप में प्रसिद्ध और पूज्य जैन-प्रतिमा को नन्दवंशी-राजा कलिंग से मगध ले गये थे, उसे इस खारवेल सम्राट ने वहां से पुनः लाकर विधिवत् अपनी राजधानी में प्रतिष्ठित किया। खारवेल के जीवन में धार्मिक, नैतिक तथा लौकिक भावनाओं और घटनाओं का अद्भुत समन्वय इस अभिलेख के माध्यम से ही हमें देखने को मिलता है।
खारवेल के इस एक ही उदाहरण से शिलालेखों आदि की महत्ता का अनुमान स्वतः ही लगाया जा सकता है। क्योंकि १९वीं-२०वीं शती के कुछ तथाकथित विद्वानों ने जिस प्राचीनतम जैनधर्म को हिन्दू अथवा बौद्ध धर्म की शाखा मात्र कहकर उसके मौलिक तात्त्विक चिन्तन, विशाल-साहित्य एवं संस्कृति की उपेक्षा करने की अब तक कोशिश की है, उनके समक्ष मोहनजोदड़ो-हड़प्पा एवं सिन्धुघाटी से प्राप्त मूर्तियों, सिक्कों आदि के रूप में प्राप्त प्रमाणों, वेदों आदि के श्रमण संस्कृति विषयक वातरसना, वात्य, शिश्नदेव, केशी आदि के उल्लेख
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