Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 247
________________ 236 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 इनके बाद आ० उमास्वाति का उल्लेख करके इन्हें भद्रबाहु के अन्वय का ही बतलाया है । इस लेख का मुख्यांश इस प्रकार है श्रीभद्रः सर्वतो यो हि भद्रबाहुरिति श्रुतः। श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ चन्द्रप्रकाशोज्वलचान्द्रकीतिः श्रीचन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः । यस्य प्रभावाद् वनदेवताभिराराधितः स्वस्य गणो मुनीनाम् ॥ तस्यान्वये भू-विदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोण्डकुन्दादि-मुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गत चारणाद्धिः ॥ अभूदुमास्वाति मुनिश्वरोऽसावाचार्य-शब्दोत्तरगृद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तालालिकाशेष-पदार्थ वेदी ॥ पद्यनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य का ही अपर नाम है । टीकाकार जयसेनाचार्य तथा ब्रह्मदेव ने कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव को भी कुन्दकुन्दाचार्य का गुरु बतलाया है, जबकि नन्दिसंघ की पट्टावली में जिनचन्द्र को गुरु बतलाया है ।२ किन्तु भद्रबाहु को आचार्य कुन्दकुन्द ने 'गमकगुरु' के रूप में जिस तरह स्मरण किया है उससे आ० भद्रबाहु को ही उनका गुरु मानना अधिक उपयुक्त है। आचार्य कुन्दकुन्द का जन्म स्थान आन्ध्रप्रदेश के पेदथनाडु जिले में कौण्डकुन्दपुर अपरनाम कुरुमरई माना जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द के अनेक नाम तथा विशेषण ___ साहित्य और शिलालेखों में इनके विभिन्न नामों का उल्लेख मिलता है, जिनमें कोण्डकुन्द (कुन्दकुन्द), पद्मनन्दि, वक्रग्रीव, एलाचार्य, महामुनि, गृपिच्छ प्रमुख नाम है। नन्दिसंघ से सम्बद्ध विजयनगर के १३८६ ई० के एक शिलालेख में तथा नन्दिसंघ पट्टावली में इस तरह नामों का उल्लेख है श्रीमूलसं(घ)ऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणेऽतिरम्य । तत्रापि सारस्वतनाम्निगच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पद्मनन्दो ॥ आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः। एलाचार्यो गृपिच्छ इति तन्नाम पंचधा ॥ वि० सं० ९९० में रचित आचार्य देवसेन ने अपने 'दर्शनसार' ग्रन्थ में मात्र 'पद्मनन्दी' नाम से उनका उल्लेख किया है। वि० सं० १६वीं शती के षट्प्राभूत के १. (क) समय प्राभृत भूमिका पृ० ४. (ख) पञ्चास्तिकाय पर ब्रह्मदेव (१२वों सनी) की टीका की उत्थानिका. २. जैनसिद्धान्त भास्कर वर्ष १ अंक ४, पृ० ७८. ३. जैनसिद्धान्त भास्कर (आरा) भाग १, किरण ४, पृष्ठ ९०. ४. दर्शनसार ४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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