Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 263
________________ 252 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7. यहाँ प्रदोष का अत्यन्त सुन्दर बिम्ब रूपायित हो रहा है । निशा चन्दाअवघवलाओ फुरन्तविअसरअणन्तरिअसोहाओ। सोम्मे सरअस्स उरे मुत्तावलिविज्भमं वहन्ति णिसाओ ॥३२ कान्तिमान् दिवसमणि सूर्य की आभा से अभिभूत तथा चन्द्र ज्योत्स्ना से धवलित रातें रमणीय शरद् ऋतु के हृदय पर मोती की माला के समान जान पड़ती हैं । शरद् ऋतु में रात्रियां अत्यन्त स्वच्छ, निर्दोष एवं निर्मल हो जाती हैं। ज्योत्स्नाआवेष्टित रात्रियों की आह्लादकता एवं रमणीयता सावप्रथित है । (११) विशा ___ सेतुबन्ध के अनेक स्थलों पर दिशाओं का रमणीय बिम्ब उपलब्ध होता है घुअमेहमहुमराओ घणसमआअढिओणअविमुक्काओ। णहपाअवसाहामो णिअअट्ठाणं व परिगआओ विसाओ ॥3 शरदकाल में दिशाएं वर्षाकालीन मेघ से धुलकर अत्यन्त स्वच्छ हो गयी है। मेघमण्डल से विमुक्त दिशाएँ अत्यन्त शुभ्र एवं सुन्दर प्रतीत हो रही है। (iv) आकाश रइअरकेसरणिवहं सोहइ षवलम्भवलसहस्सपरिणअम् । महुमहदंसणजोगं पिआमहुप्पत्तिङ्क व जहालम् ॥३४ शरदऋतु का आकाश भगवान् विष्णु की नाभि से निकले हुए उस अपार विस्तृत कमल के समान सुशोभित हो रहा है जिसमें ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है, सूर्य की किरणें ही जिनमें केसर हैं तथा सफेद बादलों के सहस्रो खण्ड दल हैं । प्रस्तुत गाथा में शरद्-ऋतु के स्वच्छ एवं शुभ्र आकाश का सुन्दर बिम्ब साक्षात रूप में रूपायित हो रहा है। (v) प्रह-नक्षत्र मक्षत्र-मण्डल पव्वअसिहरुच्छितं धावइ जं जं जलं णहङ्गणहुत्तम । तं तं रमणेहि समं दोसह णक्खत्तमजलं व पडन्तम् ॥३५ आकाशोन्मुख सागर जल के साथ उछले हुए रत्न नक्षत्र मण्डल की तरह प्रतीत हो रहे हैं। यहां पर रत्नों की उपमा नक्षत्र-मण्डल से दी गयी है। नक्षत्र-मण्डल की भास्वरता, प्रकाशरूपता आदि का बिम्ब स्पष्टतया रूपायित हो रहा है। __ अन्य स्थलों पर तारागण ( ९/३८, १०/३६, ५३ ) तारिकाएं ( ९/७०) चन्द्रमा (९/५०, ९/७५) बालचन्द्र (९/५४) आदि के बिम्ब उपलब्ध होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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