Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 275
________________ 264 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 शान्तिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथ मल्लि सुव्रतनाथ नमिनाथ अरिष्टनेमि पार्श्वनाथ महावीर हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिला राजगृह मिथिला शौरीपुर वाराणसी वैशाली २३. २४. इन चौबीस तीर्थङ्करों में चार-आदि तीर्थङ्कर ऋषभनाथ, उन्नीसवें तीर्थङ्कर मल्लि, तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ तथा चौबीसवें तीर्थकर महावीर को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस तालिका से यह स्पष्ट है कि जैनधर्म के आदि तीर्थकर ऋषभनाथ का जन्म पच्छिम में कोशल जनपद में हुआ और अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जन्म पूर्व के वज्जी जनपद में। अतः ऐसा कहा जा सकता है कि तीर्थङ्करों का जन्म लेना पच्छिमी भारत के कोशल जनपद से प्रारम्भ होकर पूर्वी भारत के वज्जी जनपद में समाप्त हुआ। इस प्रकार यह कहना गलत नहीं होगा कि जैनधर्म का उद्भव तो पच्छिमी भारत में हुआ, पर इसे फलने फूलने का अवसर पूर्वी भारत में मिला । अन्तिम तीर्थंकर महावीर के अतिरिक्त जिन छः तीर्थङ्करों को जन्म देने का श्रेय बिहार को है, वे है-(१) नवें तीर्थङ्कर पुष्पदन्त या सुविधि, (२) दसवें तीर्थङ्कर शीतलनाथ, (३) बारहवें तीर्थङ्कर वासुपूज्य, (४) उन्नीसवें तीर्थकर मल्लि, (५) बीसवें तीर्थङ्कर सुव्रतनाथ और (६) इक्कीसवें तीर्थङ्कर नमिनाथ । इनका संक्षेप में परिचय निम्न प्रकार है : १. पुष्पदन्त या सुविधिनाथ बिहार की पावन धरती पर उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों में पुष्पदन्त प्रथम है । जैन तीर्थकुरों में इनका क्रम नौवा है । ये काकन्दी नगरी के राजा सुग्रीव की रानी रामा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। बिहार में मुंगेर जिले के काकन गांव को प्राचीन काकन्दी बताया गया है । पुष्पदन्त को ऊंचाई १०० धनुष थी और शरीर का वर्ण चन्द्रमा के प्रकाश की भांति कान्तियुक्त था । काकन्दी नगरी के बाहर मल्लिका वृक्ष के नीचे इन्होंने केवल ज्ञान का साक्षा. स्कार किया था तथा दो लाख पूर्व वर्ष आयु के व्यतीत होने पर सम्मेदशिखर पर इन्होंने मोक्ष की प्राप्ति की थी। इनके संघ में दो लाख श्रमण एवं तीन लाख श्रमणियाँ थीं। वराह इनके प्रमुख शिष्य थे और वारुणी प्रमुख शिष्या। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' में राजा महापद्म एवं देव अहमिन्द्र के रूप में इनके दो पूर्व भवों का उल्लेख हुआ है । अन्य परम्पराओं में इनका उल्लेख नहीं हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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