Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 245
________________ 234 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 तथा हाथी गुम्फा का पूर्वोक्त लेख और प्राचीनतम साहित्य प्रस्तुत करना आवश्यक है, क्योंकि निष्पक्ष दृष्टि से इन सब प्रमाणों का गहन अध्ययन करने से श्रमण (जैन) संस्कृति की अति प्राचीनता सिद्ध होती है । भारत के प्रत्येक प्रदेशों में प्राचीन जैन शिलालेख, मूर्तिलेख आदि उपलब्ध है । यद्यपि बहुत से उपेक्षावश नष्ट हो गये और अनेकों अज्ञातावस्था में पड़े हैं किन्तु यथासम्भव भारत के कोने-कोने से सहज उपलब्ध हजारों शिलालेखों का संग्रह करके श्री माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला बम्बई और भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ने "जैन शिलालेख संग्रह" नामक ग्रन्थ को पांच भागों में तथा अन्य स्थानों से इस तरह के ग्रन्थ प्रकाशित करके जैन संस्कृति का बहुत उपकार किया हैं । इनका अध्ययन सभी को अवश्य करना चाहिए ताकि हम अपने वैभव और गौरवपूर्ण अतोत को पहचान सकें । जब से इन शिलालेखों आदि का अध्ययन प्रारम्भ हुआ है तब से जैन-धर्म, संस्कृति, संघ, साहित्य एवं इतिहास की समृद्धि और प्राचीनता की ओर तो लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ हो, इसके लेखन में विशेष प्रौढ़ता और प्रामाणिकता भी दृष्टिगोचर होने लगी, साथ ही एक व्यवस्थित एवं सुदृढ़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी समावेश हुआ है । जैनेतर विद्वानों की इस ओर विशेष अभिरुचि भी कम श्लाघनीय नहीं है । जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इस देश के कोने-कोने में शिलालेखादि प्राप्त हुए हैं किन्तु इस विषयक साहित्य के अध्ययन से यह तथ्य विशेष उल्लेखनीय है कि दक्षिण एवं पश्चिम भारत में इनका विशेष प्राचुर्य देखने में आया है । अकेले श्रवणवेलगोल में ही ५०० महत्त्वपूर्ण शिलालेख उपलब्ध हैं । सभी शिलालेखों एवं मूर्तिलेखों आदि के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि धर्मप्राण महिलावर्ग एवं पुरुषवर्ग सारे जीवन को धर्म की आराधना में व्यतीत कर अन्तिम समय में समाधिमरणपूर्वक देहोत्सर्ग करता था । लोग अपने कल्याण के लिए, माता-पिता, भाई-बहिन आदि के कल्याण के लिए, गुरू की स्मृति हेतु, राजा आदि के सम्मानार्थ अथवा इसी तरह के अन्य शुभ कार्यों के लिए एवं पुण्यार्जन के लिए अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मंदिर या मूर्ति का निर्माण कराते थे, साथ ही उनकी सुरक्षा, पूजा आदि के लिए, नूतन निर्माण के लिए, मुनियों को आहारदान के लिए और शास्त्रों की लिपि करने वाले लिपिकारों आदि के लिए लोग दान देते थे । प्रस्तुत निबन्ध द्वारा भी मात्र यह प्रयास किया गया है कि कुछ प्रमुख जैन शिलालेखों आदि में आचार्य कुन्दकुन्द का किस-किस रूप में उल्लेख प्राप्त हैं । यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द के अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्व के विषय में विद्वानों द्वारा काफी लिखा जा चुका है। विशेषकर इस समय पूरे देश में आचार्य कुन्दकुन्द का द्विसहस्राब्दी समारोह पिछले वर्ष से ही मनाया जा रहा है। अतः इस समय उनके साहित्य का भी काफी प्रकाशन हुआ है और विभिन्न जैन पत्र-पत्रिकाओं में भी अनेक महत्त्वपूर्ण शोधपूर्ण लेख प्रकाशित हो रहे हैं । इन सब में प्रायः विद्वानों ने उसका समय ईसा पूर्व प्रथम शती का अन्तिम चरण और ईसा की प्रथम शती के प्रारम्भ का माना है। इसके लिए विद्वानों ने अनेक ठोस प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं । मेरा दृष्टि में तो उनके द्वारा लिखित विशाल और अनुपम प्राकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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