Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कलिकाल-सर्वज्ञ कुन्दकुन्द : शिलालेखों के परिप्रेक्ष्य में
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साहित्य ही सबसे सबल प्रमाण है । अनेक प्रमाणों द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द के विषय में विद्वानों द्वारा प्रस्तुत निम्नलिखित बातें द्रष्टव्य है-१. जन्मकाल-ईसापूर्व प्रथम शती, २. वीक्षाकाल-ग्यारह वर्ष की आयु में, (ईसा पूर्व ९७ से ६४ के लगभग), ३. बाचार्य पद प्राप्ति एवं कुल आचार्य-काल-ईसा पूर्व ६४ से १२ तक, ४. स्वर्गारोहण काल-ईसा पूर्व १२ के लगभग, ५. कुल आयुष्य-९६ वर्ष के लगभग ।'
यद्यपि कुछ विद्वान् आ० कुन्दकुन्द को पांचवीं-छठी शती का भी सिद्ध करने में प्रयत्लशोल है। लगता है मूल दिगम्बर परम्परा के महान् पोषक होने के कारण आचार्य कुन्दकुन्द जैसे अनुपम व्यक्तित्व और कर्तृत्व के धनी आचार्य की उत्कृष्ट मौलिकता एवं कीति को कुछ विद्वान् सहन नहीं कर पा रहे हैं, इसीलिए उन्हें परवर्ती सिद्ध करने के लिए तथ्य रहित आधार बतलाकर अपने को सन्तुष्ट मान रहे हैं। वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द या अन्य जैनाचार्य द्वारा श्रेष्ठ साहित्य के निर्माण का उद्देश्य स्व-पर कल्याण करना था, न कि आत्म-प्रदर्शन या लौकिक-यश की प्राप्ति । इसीलिए आज अनेकों ऐसे उत्कृष्ट अज्ञातकर्तृक ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनमें उसके लेखक ने अपना नाम लिखना उचित न समझा । आचार्य अमृतचन्द्राचार्य (८-९वों शती) के पूर्व तक कुन्दकुन्द के साहित्य पर किसी द्वारा टीका आदि न लिखे जाने का यह अर्थ नहीं कि वे ५.६वीं शती के थे, अपितु बहुत कुछ साहित्य का नष्ट होना, भाषायी आक्रमण और साथ ही आज जैसे प्राचीन काल में विविध सम्पर्क और साधनों का अभाव कारण है ।
___ आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ ही उनकी प्राचीनता और प्रामाणिकता को कह रहे हैं । उन्होंने अपने ग्रन्थों में "सुयणाणिभद्दबाहू गमयगुरू भगवमओ जयओ"-कहकर अपते को बारह अंगों और चौदह पूर्वो के विपुल विस्तार के वेत्ता, गमकगुरू (प्रबोधक) भगवान् श्रुतज्ञानी-श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य कहा है। भद्रबाहु को अपना गमकगुरु कहने का यही अर्थ है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु कुन्दकुन्द को प्रबोध करने वाले गुरु थे। इसीलिए समयसार को भी उन्होंने "श्रुतकेवली भणित" कहा है । यथा
वंदित्तु सव्वसिद्ध धुवमचलमणोपमं गई पत्ते ।
बोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ।। समयसार-१. श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर महनवमी मण्डप में दक्षिण मुख स्तम्भ पर शक सं० १०८५ के लेख संख्या ४० में श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त के बाद आचार्य कुन्दकुन्द
१. आचार्य कुन्दकुन्द-पृष्ठ १०, (ले० डॉ० राजाराम जैन एवं डॉ. विद्यावती जैन)। २. श्रमण भगवान् महावीर : पृ० ३०६, लेखक पं० कल्याण विजयगणी, विशेषलेखक ने पुस्तक में दस कमजोर प्रमाणों (प्वाइंटों) द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द को
छठी शती का माना है। ३. बोध पाहुड गाथा ६०-६१ । ४. शक संवत् में ७८ जोड़ देने पर उसका ईस्वी सन् निकल आता है, ६०५ जोड़
देने पर वीर निर्वाण संवत् तथा १३५ संख्या जोड़ देने पर विक्रम संवत् निकाल लिया जाता है।
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