Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कलिकाल-सर्वज्ञ कुन्दकुन्द : शिलालेखों के परिप्रेक्ष्य में
237 टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने उनके पांच नामों का उल्लेख करते हुए उन्हें आकाश में गमन करने वाला (चारणऋद्धिधारी), विदेह क्षेत्र जाकर सीमन्धर स्वामी की दिव्यध्वनि सुनने वाला तथा 'कलिकाल सर्वज्ञ' रूप विशेषताओं से युक्त बतलाया है । प्रायः प्रत्येक प्राभृत के अन्त में इस तरह की पुष्पिका पायी जाती है।
श्रीपद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य वक्रगीवाचार्येलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपंचकविराजितेन चतुरंगुलाकाशगम द्धना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितसीमन्धरापरनाम स्वयंप्रभजिनेन तच्छुतज्ञानसम्बोधितभरतवर्ष भन्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे सर्वमुनिमण्डलीमण्डितेन कलिकालगौतमस्वामिना श्रीमलिभूषणेन भट्टारकेणानुमतेन सकलविद्वज्जनसमाजसम्मानितेनोभयभाषाकविचक्रवतिना श्रीविद्यानन्दिगुर्वन्ते वासिना सूरिवरश्रीश्रुतसागरेण विरचिता बोधप्रामृतस्य टीका परिसमाप्ता' ।
श्रुतसागरसूरि द्वारा आ० कुन्दकुन्द के लिए "कलिकालसर्वज्ञ" विशेषण भी विशेष महत्वपूर्ण है। विदेहक्षेत्र गमन और चारणऋद्धि सम्बन्धी उल्लेख
अनेक ग्रन्थों और शिलालेखों में आ० कुन्दकुन्द के विदेहगमन और चारणऋद्धि सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं । यद्यपि आज के कुछ विद्वानों ने विदेहगमन और वहां सीमंधर स्वामी के समवसरण में पहुँचकर दिव्य-ध्वनि श्रवण की इस घटना को सही नहीं माना है। किन्तु सदियों प्राचीन इन उल्लेखों को नजर-अन्दाज भी कैसे किया जा सकता है ? विदेहगमन की घटना का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य देवसेन ने किया है
जइ पउमणदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण ।
ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥२ इस गाथा में कहा है कि पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) स्वामी ने सीमन्धर स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियों को प्रबोधित किया। यदि वे प्रबोधन कार्य न करते तो श्रमण सुमार्ग किस तरह प्राप्त करते?
___ जयसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय की टोका में उक्त विदेहगमन वाली घटना को "प्रसिद्ध कया" कहा है । अनेक शिलालेखों में भी उन्हें चारणऋद्धिधारी अर्थात् पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर आकाश में अनेक योजन तक गमन करने वाला कहा है । श्रवणबेलगोल नगर के मठ की उत्तर गोशाला में शक सं० १०४१ के शिलालेख संख्या १३९ में इस तरह लिखा है
स्वस्ति श्री वर्धमानस्य वर्द्धमानस्य शासने ।
श्रोकोण्डकुन्दनामाभूच्चतुरङ्गुलचारणः ॥ १. अष्टपाहुड : पृष्ठ २०५, श्रीशान्तिबीरनगर, श्रीमहावोरजो, १९६८ (अनु० ५०
पन्नालाल जैन । २. दर्शनसार : गाथा ४३ । ३. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, शिलालेख सं०४०,४१,४२,१०५, १३९,२८७ । ४. वही पृ० २८६ ।
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