Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
चाहिए । प्राणी के दुःख से मरणासन्न होने पर या अत्यन्त वेदना से तड़फड़ाने पर तथा एक निर्वतन (एक वीषा) मात्र में तिर्यञ्चों का संचार होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए।' (ख) क्षेत्र
उतने मात्र स्थावर काय जीवों के घात रूप कार्य में प्रवृत्त होने पर, क्षेत्र की अशुद्धि होने पर, दूर से दुर्गन्ध आने पर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्ध के आने पर, ठीक अर्थ समझ न आने पर अथवा अपने शरीर से शुद्धि से रहित होने पर मोक्ष सुख के चाहने वाले व्रती पुरुष को सिद्धान्त के अनरूप अध्ययन नहीं करना चाहिए । व्यंतरो के द्वारा भेरी ताड़न करने पर, उनकी पूजा का संकट आने पर, कर्षण के होने पर, चण्डाल बालकों के समीप झाड़ा-बुहारी करने पर, अग्नि जल व रुधिर की तीव्रता होने पर तथा जीवों के मांस व हड्डियों के निकाले जाने पर क्षेत्र की विशुद्धि नहीं होती। ऐसे क्षेत्र या स्थान पर अध्ययन निषिद्ध माना गया है। (ग) काल
___ साधु पुरुषों ने बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय को श्रेष्ठ माना है। इसलिए विद्वानों को स्वाध्याय न करने के दिनों को जानना चाहिए ।
पर्व दिनों, नन्दीश्वर के श्रेष्ठ महिम दिवों और सूर्य, चन्द्र ग्रहण होने पर विद्वान व्रती को अध्ययन नहीं करना चाहिए । अष्टमी में अध्ययन गुरु और शिष्य दोनों का वियोग करने वाला होता है । पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशी के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है। यदि साधुजन कृष्ण चतुर्दशी और अमावास्या के दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवास विधि सब विनाश वृति को प्राप्त होते हैं। मध्याह्न काल में अध्ययन जिण रूप को नष्ट करता है। दोनों संध्या कालों में किया गया अध्ययन व्याधि को प्राप्त करता है तथा मध्य रात्रि में किये गये अध्ययन से अनुरक्त जन भी द्वेष को प्राप्त होते है । अतिशय तीव्र दुःख से युक्त और रोते हुए प्राणियों को देखने या समीप में होने पर, मेघों को गर्जना व विजली के चमकने पर अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने पर अध्ययन नहीं करना चाहिए ।
५. धवला ९।४, १, ५५, गाथा ९६-१००। ६. धवला ९।४, १, ५४, गाथा १०१, १०२, १०५, १०६ । ७. धवला-९।४, १, ५४, गाथा १०८-११४ । विशेष द्रष्टव्य-जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
पृष्ठ सं० २८२ । (क) व्यवहार भाष्य-७, २८१-३१९ । (ख) याज्ञवल्लभ स्मृति १, ६ १४६ ।
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