Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा
191
शौरसेनी का प्रकृष्ट स्वरूप महाराष्ट्री हमारे समक्ष किसी प्रदेश या समय की व्यवहारभाषा की हैसियत से नहीं आता, हम उसे सिर्फ साहित्यिक स्वरूप में ही पाते हैं।' काव्यादर्श में दण्डी ने जो 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः' लिखकर जिस 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां' का उल्लेख किया है उसे हमें पूर्वोक्त दृष्टि से देखना होगा। इस विषय में श्री म०म० घोष से हम सहमत हैं कि शौरसेनी और महाराष्ट्री का भेद काल की दृष्टि से ही है, जैसा कि कहा है
(१) “प्राकृत ग्रामेरियन्स आव वैस्टर्न इण्डिया (व्हिच इज व्हरी कांटीगुअस टू महाराष्ट्री),
सच एज हेमचन्द्र, शुभचन्द्र एण्ड श्रुतसागर डिड नोट नेम एनी प्राकृत एज महाराष्ट्री।" (२) अर्ली (बिफोर १००० ए० सी०) राइटर्स आन पोइटिक्स एक्सेप्ट दण्डिन डिड
__ नौट नो एनी महाराष्ट्रो । (३) दि डिफरेन्स विटवीन शौरसेनी एण्ड महाराष्ट्री व्हिच इज वैरी नीयर मे बी एक्स
प्लैंड बाई एस्युमिंग ए क्रोनोलोजीकल डिस्टेंस बिटवीन दि टू।"२
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर अब हम देखते हैं कि प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृत्तियां प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों में महाराष्ट्रो प्राकृत की कौनकौन-सी प्रवृत्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिन्हें विद्वानों ने महाराष्ट्री प्राकृत के लिए निर्दिष्ट किया है
(क) स्वर [१] 'प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों' की भाषा में अ, इ, उ, एँ और ओं-इन पांच ह्रस्व
स्वरों तथा आ, ई, ऊ, ए और ओ-इन पाँच दीर्घ स्वरों का प्रयोग हुआ है। ऐ और
औ का अभाव है। [२] ऋ के स्थान पर प्रायः अ, आ, इ, उ, ऊ, ए या रि आदेश हुए हैं तथा ल के स्थान पर
इलि आदेश हुए है । कुछ स्थानों पर ऋ ज्यों की त्यों भी पायी जाती है । यथा(i) ऋ = अ-तृपां = तपां [सेतु० ४११५] ; कृष्णाजिन = कण्हाइन [गउ० ११९०]';
तृप्ति = तत्ति [कुमा० ७.५३] ; वृक्ष = वच्छ [लीला० ५९५] । १. विशेष के लिए देखें, प्रबोध पण्डित की 'प्राकृत-भाषा' पुस्तिका पृ० ३९-४० । २. कर्पूर मंजरी-सम्पादक डॉ. मदनमोहन घोष, भूमिका भाग । ३. देखें, आचार्य हेमचन्द्र कृत प्राकृत व्याकरण एवं डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री कृत प्राकृत ___ भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, इत्यादि । ४. विशेष के लिए देखें - पाइयसहमहण्णवो का भूमिका भाग। ५. सेतु० = सेतुबन्ध अर्थात् रावणवह-महाकाव्यम्-सं० श्री राधागोविन्द वसाकेन;
संस्कृत कॉलेज कलकत्ता (१९५९) आश्वास ४।१५ गाथा देखें। ६. गउ० = गउडवहो-सं० प्रो० नरहर गोविंद सुरू; प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, अहमदा
बाद (१९५७) गाथा संख्या ११९० देखें । ७. कुमा = कुमारपालचरित-सं० डॉ० पी० एल० वैद्य; भण्डारकर ओरियण्टल
रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना (१९३६) अव्याय ७५३ गाथा देखें। ८. लीला = लीलावईकहा-सं० डॉ० ए० एन० उपाध्ये; सिंघी जैन ग्रंथमाला;
भारतीय विद्याभवन बम्बई (१९४९) गाथा संख्या ५९५ देखें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org