Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 205
________________ 194 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 (ख) असंयुक्त व्यंजन [१] स्वरों के मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, य, व व्यंजनों का प्रायः लोप हो गया है । यथा(i) क-सकलः = सअलो (सेतु० ८८३); मकरघर = मअरहर (गउ० ८०७); दुकुल: दुगूल (कुमा० २।६१); सकलेन = सयलेण (लीला० ५२८)। (ii) ग-वियोग = विओअ (सेतु० १२।२२); गगने = गअणे (गउ० ३०८); गगन = गयन (लीला० ५२४); तगर = टयर (कुमा० २।३९)। (iii) च-सुचिरं = सुइरं (सेतु० ८६५); (लोला १३००); उपचार = उत्रआर (गउ० ७६०); गोचर = गोअर (कुमा० ५।८७)। (iv) ज-रजनीचर = रअणीअर (सेतु० ११५१); रजोधः = रओहो (गउ० ६३२); पूजा = पूआ (कुमा० ११८८; २१७८; ७८); पूजां = पूर्य (लोला० १३१९) । (v) त-नितम्ब = णिअम्ब (सेतु० ८1८४); प्रतिमा = फडिमा (गउ० १०२०); गति = गइ (कुमा० २।२३); दूती = दुइ (लोला० ५४३)। (vi) द-पादप = पाअव (सेतु० ११५९); मृदित = मलिअ (गउ० १८८); युक्तमिदम् = जुत्तंमिमं (कुमा० ७.१००); शारद = सारय (लीला० २५३)। (vit) य-गायति = गाअइ (कुमा० ४१७); श्रूयते = सुबह (गउ० १०७२); महिला यितम = महिलाइअं (सेतु० २।२६); यशो = जसो (लीला० ११५५) । (viii) व-उत्प्लवमान = उप्पअमाणो (सेतु० ८८७); कवीन्द्रा = कइंदा (गउ०१०७४); युवति = जुअइ (कुमा० ४।७०, ७१, ७३, ७५); कवि = कइ (लोला०३६) । [२] स्वरों के बीच के ख, घ, थ, ध और भ के स्थान में ह का आदेश हुआ है । यथा(i) ख-सुख = सुह (सेतु० ८।२८); सुखंभरात्मा = सुहंभरप्पा (गउ० ९९३); दुःखिनी = दुहिणी (कुमा० ५।५२); नख = णह (लीला० २७६; ७५२ ७६४ तथा १०८३)। (ii) घ-लघुका = लहुआ (सेतु० ५।७५); निघोर्षोत्थ = णिहसुत्थ (गउ. १२०५); मेघा = मेहा (कुमा० ११७७, ८.१); दोषिकायां = दीहियाए (लोला० २४)। (iii) थ-मधुमथने = महुमहे (सेतु० ९८८); पथरह (गउ० १०६०); मथुरा=महुरा (कुमा० ४१६०; ६९०); मधुमथ = महुमह (लोला० १६५)। (iv) घ-साधन = साहण (सेतु० १२।३०); माघव = माहव (गउ० ६०३); द्विधा = दुहा (कुमा० ११६४); साधु = साहु (लीला० १०३८)। (v) म-प्रभोः = पहुणो (सेतु० १०॥३); अभिचार = अहिआर (गउ० १०७१); नाभि = नाहि (कुमा० ३।६१); शुभ = सुह (लीला० ६००; ८२५; ९६९)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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