Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा
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प्राकृत के लिए निर्दिष्ट किया है। रसास्वादन की दृष्टि से प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा सक्षम है। घटना-क्रम, कारण-कार्य सम्बन्ध और कथानकों को तीव्र बनाने के लिए सूक्ति वाक्यों तथा वक्रोक्तियों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है, जिससे भाषा में लालित्य, ओज और प्रभाव आ गया है। इसकी भाषा-भाव एवं शैली साहित्य प्रेमियों को मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। एक ओर जहाँ अलंकृत वर्णन शैली है, भाषा क्लिष्ट तथा समास प्रधान हो गयी है, दूसरी ओर कल्पना एवं भाव-प्रवणता का अपूर्व समन्वय होने से वह स्पष्ट, सरल और प्रवाहमयी भी दिखलाई पड़तो है। इसमें तत्सम, तद्भव तथा देशी शब्दावलियों का अद्भुत समन्वय भी हुआ है। इस भाषा के सम्बन्ध में कवि वाक्पति राज ने कहा हैप्राकृत भाषा में नवीन अर्थ का दर्शन होता है, प्रबन्ध रचना में वह समृद्ध है और कोमलता के कारण मधुर है। समस्त भाषाओं का प्राकृत भाषा में सन्निवेश होता है, सब भाषाएँ इसमें से प्रादुर्भूत हुई है; जैसे समस्त जल समुद्र में प्रविष्ट होता है, और समुद्र से ही उद्भूत होता है । इसके पढ़ने से विशिष्ट हर्ष होता है, नेत्र विकसित-मुकलित हो जाते हैं तथा बहिर्मुख होकर हृदय विकसित हो जाता है।" संक्षेप में प्राकृत के प्रतिनिधि महाकाव्यों की भाषा, शब्द-भण्डार और भावप्रकाशन की दृष्टियों से पूर्णरूपेण समृद्ध है।
१. गउडबहो-गाथा संख्या ९२, ९३ एवं ९४ देखें।
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