Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन वाङ्मय में नारी-शिक्षा
___डॉ० निशानन्द शर्मा* वैदिक परम्परा में नारी को सहधर्मिणी या अर्धाङ्गिनी रूप में अधिकतर उपस्थित किया गया है। नारी पुरुष की परछाई की तरह चलती है । मनु धर्मशास्त्र की आज्ञा है कि स्त्रियों का जाति कर्मादि संस्कार मन्त्रविहीन हो क्योंकि वे अज्ञानी होती हैं। मन्त्र की अनाधिकारिणी होने से उनकी स्थिति मिथ्या होती है।
नास्ति स्त्रीणां क्रिया मन्त्रैरिति धर्मे व्यवस्थितिः ।
निरिन्द्रिया ह्यमन्त्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति स्थितिः ॥' विवाह ही उनके लिए वैदिक संस्कार है । पतिसेवा उनके लिए गुरु और गृह कार्य ही उनके लिए सायं-प्रातः होम परिचर्या है।
वैवाहिको विधिः स्त्रीणां संस्कारो वैदिकः स्मृतः ।
पतिसेवा गुरी वासो गृहार्थोऽग्नि परिक्रिया ॥ उन्हें स्वतन्त्रता ही कहाँ है ? फलतः पुरुष से दूर रहकर स्वतन्त्र रूप से शुभकीर्ति सम्पादन करने तथा संन्यासिनी बन कर दार्शनिक चिन्तन करने के उनके उदाहरण अत्यल्प है। जैन धर्म में नारी का स्थान
__ जैन परम्परा में नारी का पूर्ण विकास हुआ है और स्वतन्त्र नारी की गौरव कीति अमर बनी है । इसमें स्वावलम्बी नारी जीवन की कल्पना प्रचुर मात्रा में मिलती है। पुरुष के साथ सहधर्मिणी होकर रहना उसके जीवन का कोई चूड़ान्त लक्ष्य नहीं, परन्तु यदि वह चाहे तो आजीवन ब्रह्मचर्य से रह कर भी आदर्श जीवन अतिवाहन करने के लिए स्वतंत्र रखी गयी है । वैदिक परम्परा में नारी का कोई धार्मिक संघ नहीं, परन्तु जैन संघ में सुश्राविका
* विहिया, भोजपुर ।
१. मनुस्मृति, ९।१८। २. वही, २०६७। ३. पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ -वही, ९।३ । अस्वतन्त्राः स्त्रियः कार्याः पुरुषः स्वैर्दिवानिशम् । विषयेषु च सज्जन्त्यः संस्थाप्या आत्मनोवशे ॥-वही, ९।२ ।
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