Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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176 Vaishali Institute Research Bulletin No. 7 समर्थस्य नियमशब्दसंसूचितविशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपंचास्तिकायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपञ्चस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य सप्ततत्वनवपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपादनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यान-प्रायश्चित्त-परमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकाण्डाडम्बरसमृद्धस्य उपयोगत्रयविशालस्य परमेश्वरस्य।'
नियमसार की रचना के विषय में कुन्दकुन्द ने स्वयं लिखा है कि यह शास्त्र मैंने निजभावना के निमित्त रचा है । यथा
णियभावणाणिमित्तं, मए कदं णियमसारणामसुदं ।
णच्चा जिणोवएस, पुवावरदोसणिम्मुक्कं ॥ गाथा १८७ ॥ आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी रचनाओं में कहीं भी अपना उल्लेख नहीं किया । मात्र 'बारस अणुवेक्खा' की अन्तिम गाथा में उनके नाम का उल्लेख पाया जाता है । इसके अलावा उन्होंने अपनी कई कृतियों में कहा है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित है । किन्तु नियमसार की उक्त १८७वीं गाथा में 'मए कदं' शब्द का प्रयोग है । आचार्य की अन्य किसी भी कृति में ऐसा उल्लेख नहीं है । यहाँ यह विचारणीय है कि आचार्य ने नियमसार की १८५वीं गाथा में अपनी प्रतिज्ञानुसार ग्रन्थ समाप्ति की सूचना इस प्रकार दी है
णियमं णियमस्स फलं, णिद्दिष्टुं पवयणस्त भत्तीए ।
पुव्वावरविरोधो जदि, अवणीय पूरयंतु समयण्हा ॥ गा० १८५ ॥ इस गाथा को यदि ग्रन्थ की उपसंहार गाथा मान लिया जाये तो यह विचारणीय होगा कि अन्तिम दो गाथाएँ (१८६-१८७) बाद में तो नहीं जोड़ दी गई। इस सन्दर्भ में पूर्वोक्त यह कथन विशेष महत्त्व रखता है कि कुन्दकुन्द की किसी अन्य कृति में 'मएकदं' नहीं कहा गया है । आचार्य इस उपसंहार गाथा की टीका करते हुए तात्पर्यवृत्ति कार ने भी इस प्रकार लिखा है-"शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोऽयम् । नियमस्तावत् शुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः। तत्फलं परमनिर्वाणमिति प्रतिपादितम् । न कवित्वदर्पात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति...।
नियमसार में कुन्दकुन्द ने जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, काल और आकाश इन षड्द्रव्यों को तत्त्वार्थ कहा है। इन्हीं का विवेचन किया है। सम्यग्दर्शन के स्वरूप विचार के प्रसंग में आचार्य ने आप्त और आगम का संक्षिप्त किन्तु ठोस वर्णन किया है । सम्यग्ज्ञान पर विचार करते हुए उसके दो भेद किये हैं-(१) स्वभावज्ञान और (२) विभावज्ञान । स्वभावज्ञान इन्द्रियरहित और असहाय केवलज्ञान है। शेष मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्ययज्ञान और
१. वही, ता. वृ० टीका, गा० १८७ । २. नियमसार, ता० वृ० गा० १८५ । ३. नियमसार, गा०९।
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