Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 189
________________ श्रमण-संस्कृति के पुण्यप्रतीक : इन्द्रभूति गौतम ___ डॉ० (श्रीमती) विद्यावती जैन* इन्द्रभूति गौतम श्रमण संस्कृति के उस विराट् व्यक्तित्व का नाम है, जिसने उसे जीवित बनाए रखने के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया । महान् व्यक्तित्व किसी धर्म अथवा सम्प्रदाय की परिधि के घेरे में बँध कर नहीं रह सकता। क्योंकि सार्वजनीनता उसके जीवन का प्रमुख लक्ष्य रहता है । चाहे महर्षि जनक हों, चाहे राम और कृष्ण अथवा बुद्ध और महावीर । सबके जीवन की यही विशेषता देखी जाती है। हमारे प्रस्तुत निबन्ध के प्रधान नायक गौतमगणधर की भी यही विशेषता है। उन्होंने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया और वेद-वेदांगों में विशिष्ट नैपुण्य प्राप्त किया और इसके प्रचार-प्रसार के लिए एक विशाल वैदिक-विद्यापीठ की स्थापना भी की, जिसमें उनके ५०० शिष्यों ने गहन अध्ययन किया। किन्तु एक निष्णात विद्वान् की यह विशेषता होती है कि वह परिस्थिति-विशेष में अपने जीवन की समस्त धारा को भी बदल देता है। गौतम के साथ भो यही हुआ । श्रमण-संस्कृति के महान् प्रचारक तीर्थकर महावीर का उन्होंने शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। प्राचीन वाङ्मय के अनुसार हुआ यह कि उनके समकालीन वैशाली-पुत्र महावीर ने कैवल्य की प्राप्ति की और उन्हें एक ऐसे सहयोगी शिष्य की आवश्यकता का अनुभव हुआ, जो उनकी सूक्ष्म सांकेतिक वाणी को ग्रहण कर उसका विशेषण कर सके । पुराणों के अनुसार कहा जाता है कि जब भगवान् महावीर के प्रवचन के लिए समोशरण अर्थात् ऑडोटोरियम का निर्माण किया गया, तब देवों ने उसके मुख्य द्वार पर मानस्तम्भ की रचना भी की । इतना सब होने पर भी जब महावीर का प्रवचन प्रारम्भ न हुआ तब इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई और उसने अवधिज्ञान के बल पर यह अनुभव किया कि उन्हें एक प्रकाण्ड विद्वान् पट्टघर की आवश्यकता है। चूंकि यह घटना राजगृह नगरी के विपुलाचल की है और उसी के समीप उक्त गौतम की वैदिक-विद्यापीठ थी, अतः वह उसके पास सामान्य व्यक्ति के रूप में -पहुँचा और उनको आकर्षित करने के लिए निम्न प्रश्न पूछा "पंचेवअस्थिकाया, छज्जीव-णिकाया, महन्वया पंच । अट्ठयपवयण-मादा सहेउओ धंध-मोक्खो य' ।। गौतम ने इस प्रकार के दार्शनिक तत्वों की जानकारी प्राप्त नहीं की थी, इसलिए वे इस प्रश्न को सुनकर बड़े आश्चर्यचकित हो उठे और बहुत प्रयत्न करने के बाद भी जब इसका उत्तर न बन पड़ा तो उन्होंने उल्टे इन्द्र से ही इस प्रश्न का उत्तर पूछा। छद्मवेशधारी इन्द्र स्वयं अज्ञानी * महाजन टोली नं० २, आरा। १. षट्खण्डागम, धवला पु. ९, पृ० १२९ से उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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