Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन वाङ्मय में नारी-शिक्षा
173 यन्त्र पुस्तकर्म कहलाते थे। कतिपय खिलौने में छिद्र रहते थे और कुछ में उनका अभाव ही रहता था। छिद्र सहित खिलौने के रमणीय रूप बनाना कुछ कठिन अवश्य माना जाता था।
सिलाई-कढ़ाई की भी शिक्षा उस समय दी जाती थी। इस शिक्षा को जैन वाङ्मय में बुष्किम कहा है। सूई द्वारा कपड़े पर कढ़ाई का कार्य करना अथवा हाथी दांत के ऊपर महोन कुचिका अथवा छेनी-हथोड़ी द्वारा आकृतियां उत्कीर्ण करना बुष्किम के अन्तर्गत है । बुष्किम के दो भेद हैं-छिन्न और अछिन्न । छिन्नकर्म में कैंची से काट कर कपड़े को सीना तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्रों की, रेशम या अन्य किसी जरी आदि के तनों से कढ़ाई का कार्य करना छिन्न के अन्तर्गत आता है । पत्रच्छेद्यक्रिया के वर्णन में आज की सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, कताई आदि का अन्तर्भाव हो जाता है। नारियों के लिए यह शिक्षा अनिवार्य मानी गयी है।
माला बनाना प्राचीन भारत की एक कला है। राजकुमारियां और सामान्य कन्याएँ माला बनाने की कला में प्रवीणता प्राप्त करती थीं। प्राचीन भारत में माला निर्माण करने की कला अत्यन्त विकसित और समृद्ध थी। केकया ने पुष्प, अक्षत, शुष्क पत्र, यव आदि पदार्थों द्वारा माला निर्माण करने की शिक्षा भी प्राप्त की थी। प्राचीन काल में चावलों के सीथ अथवा यवादि से माला बनाने की क्रिया को तदुज्झित कहा गया है। रण-प्रबोधन, व्यूह-संयोग आदि भेदों सहित माल्यकर्म को भी बुद्धिमती केकया अच्छी तरह जानती थी।
___ औषधि-विज्ञान, रसविज्ञान एवं इत्र-विज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। बतलाया गया है कि योनि द्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म, गुण-दोष विज्ञान एवं कौशल की शिशा गन्ध योजना के आवश्यक अंग थे । व्याख्या करते हुए स्वयं आचार्य रविषेण ने बताया है कि जिनसे सुगन्धित पदार्थों का निर्माण होता है, ऐसे अगर, तगर, चन्दन आदि का परिज्ञान प्राप्त करना योनि द्रव्य विज्ञान है। धूपबत्ती एवं सुगन्धित पदार्थों का आश्रय क्या हो सकता है और किस आश्रय में रखने से सुगन्धित पदार्थों की सुगन्धित वृद्धिगत हो सकती है, इसकी जानकारी अधिष्ठान-विधि द्वारा प्राप्त की जाती थी।
कट, मघ. तिक्त, कषायला, अम्ल एवं लवण आदि षड् रस पदार्थों का परिज्ञान प्राप्त करना और संयोगी पदार्थों द्वारा संयोगो रसों का सृजन, विधि प्राप्त करना, रस-ज्ञान-कला में परिगणित है।
भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चूष्य पांच प्रकार के भोजन सम्बन्धी पदार्थों के निर्माण की प्रक्रिया को सीखना एवं सुस्वादु और आरोग्य-वर्द्धक भोजन-विधियों का परिज्ञान प्राप्त करना नारी-शिक्षा में परिगणित था ।
सोना, चांदी, मोती, हीरा, जवाहरात आदि का सम्यक् परिज्ञान और उक्त पदार्थों के गुण-दोषों की जानकारी भी नारियां प्राप्त करती थीं। वस्त्रों को रंगना और उन पर ठप्पे लगाना तथा धागे द्वारा वस्त्रों की कढ़ाई के कार्य करना भी शिक्षा में सम्मिलित था। लोहा,
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