Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मध्यकालीन जैन साहित्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन
163 कृशता का कारण पूछ रहे हो ? हे अनभिज्ञ ! ऊपर रखे गए भार के बोझ से सांड़ भी क्षीण हो जाता है और उसके भी अंग दुर्बल हो जाते हैं ।
गोइन्दकई (गोविन्द कवि)-महाकवि स्वयम्भू ने इस कवि का सर्वप्रथम स्मरण किया है। स्वम्भूछन्दस् में उसके चार अपभ्रंश-उद्धरण मिलते हैं।' उनसे कवि की प्रौढ़प्रतिभा का परिचय मिलता है। वह एक पद्य के माध्यम से प्रश्न करता है कि जब कमल और कुमुद एक ही स्थान से उत्पन्न होते हैं, तब कुमुद का विकास चन्द्रोदय से तथा कमल का विकास सूर्योदय से क्यों होता है ? फिर कवि स्वयं ही उसका उत्तर भी देता है। वह पद्य निम्न प्रकार है
कमल कुमुअह एक्क उप्पत्ति । ससि तो वि कुमुआरह देइ सोक्ख, कमलह दिवाअरु पाविज्जइ अवसफल ।
जेण जस्स पासे ठवेइउ ॥ स्वयम्भू० ४।९।१ उक्त पद्य एवं उसके अन्य पद्यों की अलंकृत शैली की तुलना संस्कृत के कवि भट्टि से की जा सकती है। क्योंकि भट्टि के काव्य में भी अनेक स्थलों पर इसी प्रकार की उद्भावनाएं मिलती है। गोइन्द-कई की भाषा-शैली को देखकर प्रतीत होता है कि वह ७वीं सदी के आसपास कभी हुआ होगा।
जीवएव (जीवदेव)-इस कवि का उल्लेख भी स्वयम्भूछन्दस् में मिलता है । इसकी भाषा-शैली को देखकर प्रतीत होता है कि वह ७वीं सदी में कभी हुआ होगा।
स्वयम्भूछन्दस् में उद्धृत पद्यों को देखकर लगता है कि वह वीर-रस का कवि था क्योंकि उसने अपने पद्यों में रणभूमि में वीरों द्वारा किए गये वीरतापूर्ण कार्यों का तथा युद्धभूमि में नृत्य करते हुए उनके कबन्धों और सिरों का बहुत ही सजीव चित्रण किया है । कवि कहता है
सव्वाभूमीणरसिरभरिमा सलोहिअ कद्दमा, सग्गोसुण्णो हरिहरपमुहा सुरा वि समागआ । कत्तो गच्छं अमुणि णिल भणंत मिवाउलं,
कंठच्छिण्णं भमइ भडसिरं णहम्मिअकेवलं ॥ ११४३११ अर्थात्-सम्पूर्ण भूमि मनुष्यों के सिरों से भरी पड़ी है । वह रक्त से लोहित-वर्ण की एवं पंकिल हो गई है। स्वर्ग शुन्य है । हरिहर प्रमुख सभी देवता भी आ गए हैं । 'अज्ञात स्थान में कहाँ जाऊँ ?' इस प्रकार कहते हुए व्याकुल कण्ठ से छिन्न-भिन्न वीर का सिर केवल आकाश में ही घूम रहा है।
१. दे० स्वयम्भूछन्दसु-४।९।१, ४।९।३, ४।९।५, ४।१।१। २. वही, ११४३११, ११४४।१।
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