Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मध्यकालीन जैन साहित्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन
165 'आयसद्भाव' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ कवि मल्लसेन का भी उपलब्ध है, जिसने सुग्रीव का उल्लेख इस प्रकार किया है' :
सुग्रीवादि मुनीन्द्रर्रचितं शास्त्रं यदायसद्भावम् ।
तत्सम्प्रत्यार्याभिर्विरच्यते मल्लिषेणेन ॥ स्पष्ट है कि सुग्रीव ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता थे। इन्हें ज्योतिष में आय-प्रणाली का प्रवर्तक कहा गया है। इनका समय अनुमानतः ५वीं शती होना चाहिए । उस समय लौकिकसाहित्य के प्रणेताओं को भी कवि कहा जाता था, इसीलिए सुग्रीव को भी कवि कहा गया है।
प्राचीन ग्रन्थ-प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं को देखने से विदित होता है कि साहित्यकार जाति, समाज या धर्म को सीमाओं में बंधकर नहीं चले। साहित्यिकों का वर्ग ही उनका समाज है एवं साहित्य-सेवा ही उनका धर्म । यही कारण है कि एक सम्प्रदाय के लोगों ने दूसरे सम्प्रदाय के साहित्य की अपनी अभिरुचि के अनुसार यथाशक्ति सेवाएं की हैं।
___ जैन लेखकों में माणिक्यनन्दि, भानुचन्द्र-सिद्धिचन्द्रगणि एवं लक्ष्मीचन्द्र प्रभृति जैन साहित्यकारों ने जैनेतर कवियों की कृतियों पर विस्तृत एवं प्रामाणिक टीकाएं लिखी हैं।
ब्राह्मणों एवं कायस्थों ने जैन-साहित्य के प्रणयन में अनुपम योगदान दिया। आचार्य पूज्यपाद, जिनसेन, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, हस्तिमल्ल एवं देवदत्त दीक्षित आदि कवि मूलतः ब्राह्मण थे किन्तु बाद में उन्होंने जैन-दीक्षा लेकर विविध विषयक जैन-साहित्य का प्रणयन किया, जो परवर्ती कवियों के लिए आधार-साहित्य बन गया।
कायस्थों में महाकवि हरिचंद ने धर्मशर्माभ्युदय नामक ग्रन्थ का प्रणयन कर शिक्षाजगत् को आश्चर्य में डाल दिया। इस काव्य की श्रेष्ठता के कारण विद्वानों ने उन्हें महाकवि कालिदास की कोटि में प्रतिष्ठित किया है।
तोमरवंशी राजा वीरमदेव के राज्यकाल में पद्मनाभ कायस्थ ने संस्कृत यशोधर काव्य (अपरनाम दयासुन्दर-काव्य) लिखा, जो कलापक्ष एवं भावपक्ष दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट कोटि की रचना मानी गई है।
कायस्थों की चतुराई, कार्यकुशलता एवं कला-प्रियता सुप्रसिद्ध रही है । जैन-प्रशस्तियाँ देखने से विदित होता है कि मध्यकालीन जैन-साहित्यकार कायस्थों को अपने व्यक्तिगत सहायक के रूप में भी रखते थे। मध्यकालीन अनेक जैनहस्तप्रतियां उन्हीं के द्वारा लिखी हुई उपलब्ध होती है । ऐसे लिपिकर्ताओं में गौगान्वय कायस्थ पण्डित, गन्धर्वपुत्र, वाहड, राजदेव (वि० सं० १३९१), कायस्थ साधु (वि० सं० १५८०), थलू कायस्थ (वि० सं० १४८६) एवं कायस्थ लक्ष्मण प्रमुख है । थलू कायस्थ तो सम्भवतः भट्टारक गुणकीत्ति एवं यशःकीत्ति के व्यक्तिगत सहायक तथा आशुलिपिक के रूप में भी नियुक्त थे, क्योंकि उनके अधिकांश अन्य थलू कायस्थ की प्रतिलिपि में व्याप्त होते हैं। .
१. दे० केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि-प्रस्तावना, पृ० ३७ । २. अप्रकाशित (जैन सिद्धान्त भवन आरा में सुरक्षित)।
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