Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
________________
154
Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
अभी तक जो भी मध्यकालीन जैन-साहित्य प्रकाशित हुआ है, इतिहास की दृष्टि से वह बड़ा ही मूल्यवान् सिद्ध हुआ है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि उसके अनेक ग्रन्थों में महावीर निर्वाण-काल के पश्चाद्वर्ती लगभग ४३८ वर्षों में होने वाले केवलज्ञानियों, श्रुतकेवलियों, अंगधारी आचार्यों तथा नन्द' एवं मौर्यवंशी राजाओं और महामति चाणक्य का तिथि क्रमानुसार वर्णन उपलब्ध है। प्राच्य एवं पाश्चात्य इतिहासकारों को भारतीय इतिहास के लेखन में उक्त जैन-सन्दर्भ-सामग्री ने अनेकविध सहायता प्रदान की है। उसमें निश्चित तिथिक्रम के मिल जाने के कारण भारतीय इतिहास का प्रारम्भ नन्दवंश से माना जाने लगा। सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो० रैप्सन ने नन्दवंश के सुनिश्चित् तिथिक्रम की उपलब्धि देख कर उसे भारतीय इतिहास का द्वार (The Sheet Anchor of Indian Chronology) कहा है।
___ इतिहासकारों ने भगवान् महावीर का निर्वाण काल ई० पू० ५५७ माना है, जिसका आधार जैन-साहित्य है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार महावीर-निर्वाण के १५५ वर्ष बाद (जो कि नन्द राजाओं का राज्यकाल था), चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) ने चाणक्य की सहायता से अन्तिम घननन्द नरेश से मगध का साम्राज्य प्राप्त किया था, अर्थात् ५२७-१५५ % ३७२ ई० पू० में चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) मगधाधिपति बना और यही काल नन्दवंश की समाप्ति का भी काल था। पं० कैलाशचन्द जी के अनुसार यदि इन १५५ वर्षों में से ६० वर्ष, जो कि महावीर निर्वाण के बाद पालकवंशी राजाओं का राज्यकाल है, उसे निकाल दिया जाय, (१५५-६० = ९५) और उन अवशिष्ट (९५) वर्षों को चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण-काल (ई. पू० ३७२) में जोड़ (३७२ + ९५ = ४६७) दिया जाय, तो नन्दवंश का राज्यारम्भ-काल ई० पू० ४६७ निकल आता है।
इस प्रकार जैन तिथिक्रमानुसार नन्दवंश का राज्यारम्भकाल ई० पू० ४६७ एवं राज्यसमाप्तिकाल ई० पू० ३७२ सिद्ध होता है। नन्दराज्य का समाप्तिकाल ही चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहणकाल है। आचार्य जिनसेन एवं मेरुतुंग ने चन्द्रगुप्त का राज्यारोहणकाल महावीर निर्वाण के २१५ वर्ष बाद माना है। उक्त दोनों मान्यताओं में ६० वर्ष का अन्तर है। यह केवल इसलिए कि जिनसेन एवं मेरुतुंग ने उक्त ६० वर्षों को मिलाकर उक्त समय (२१५ ई० पू०) बतलाया है। यह चर्चा मध्यकालीन जैन साहित्य के लगभग २८ ग्रन्थों में
१. दे० इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार (मणिक० सीरीज बम्बई, प्रथाङ्क १३, सन्
१९३२ ई.)। २-४. दे० डॉ० राजाराम जैन द्वारा सम्पादित-भद्रबाहु चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक,
गणेशवर्णी दि० जैन शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा प्रकाशित, १९८२, पृ० २३ । ५. दे. वही पृ० २१ । ६. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री-जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका पृ० ३३०-३३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org