Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मध्यकालीन जैन साहित्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन मध्यकालीन साहित्य-साधना में भट्टारकों की भूमिका विस्मृत नहीं की जा सकती। धर्मसाधना के साथ-साथ साहित्य-लेखन, साहित्य-संरक्षण, साहित्यकारों की उत्साह-वृद्धि, सामाजिक-सम्पर्क, मन्दिरों एवं मूत्तियों की प्रतिष्ठा, सामाजिक एवं धार्मिक समस्याओं में मार्ग-दर्शन ही उनके प्रमुख कार्य थे। मन्त्र-तन्त्र में निष्णात होने के कारण विविध प्रकार के चमत्कारों से राजाओं को भी ये प्रभावित करते रहते थे। इस कारण मध्यकाल में इन्होंने जन-मन को सर्वाधिक आकर्षित किया। संस्कृत एवं अपभ्रंश के मध्यकालीन जैन-साहित्य के लेखन में भी इन भट्टारकों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा। अतः मध्यकालीन कवियों ने भी अपनी प्रशस्तियों में अनेक भट्टारकों का विस्तृत-परिचय एवं उनके कार्य-कलापों पर अच्छा प्रकाश डाला है। (विशेष के लिए देखिए-रइधू का आलोचनात्मक परिशीलन, भट्टारक प्रकरण)।
मध्यकाल का जैन शिलालेखीय साहित्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बडली (अजमेर) एवं हाथीगुम्फा के शिलालेख प्राचीन होने के कारण प्रस्तुत निबन्ध की सीमा से परे है। किन्तु दक्षिण भारत में उपलब्ध मध्यकालीन शिलालेख दक्षिण भारतीय इतिहास के लेखन में बहुमूल्य सिद्ध हुए हैं। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री बी० एल० राइस एवं श्री नरसिंहाचार्य ने घोर परिश्रमपूर्वक लगभग १३००० ऐसे ही ऐतिहासिक शिलालेखों का संग्रह किया है। इनमें से ५७७ शिलालेख केवल श्रवणबेलगोल में ही उपलब्ध है। उनमें से एक शिलालेख ६वीं सदी का भी है, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) की जैन-दीक्षा के बाद आचार्य भद्रबाहु के साथ कर्नाटक में पहुँचने तथा तपस्या करने की चर्चा है ।'
श्रवणबेलगोल के अन्य शिलालेखों में भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के बाद होने वाले अनेक जैनाचार्यों, शास्त्रकारों, शास्त्रार्थकारों, राजाओं, विदुषी महिलाओं, राष्ट्रकूट, चालुक्य, होयसल, ओड्यार, कदम्ब, नोलम्ब, पल्लव, चोल आदि राजवंशों तथा उनके अमात्यो, सेनापतियों एवं श्रेष्ठियों से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है ।
राष्ट्रकूट वंशी जैन-सम्राट अमोघवर्ष के शासन की प्रशंसा विदेशी इतिहासकारों ने भी की है । ९वीं सदी के अरब के इतिहासकार सुलेमान के अनुसार “९वीं सदी में इस संसार में केवल ४ सम्राट ही प्रसिद्ध थे-(१) भारत का अमोघवर्ष, (२) चीन का सम्राट, (३) बगदाद का खलीफा और (४) रूम (तुर्की) का सुलतान । किन्तु इन चारों में से सम्राट अमोघवर्ष सर्वोपरि था।" डॉ० भण्डारकर के अनुसार-"राष्ट्रकूट नरेशों में अमोघवर्ष जैन धर्म का सर्वमहान संरक्षक था।" "पट्टावलियों के अनुसार वीरसेन स्वामी के पट्टशिष्य और वाटनगरकेन्द्र के तत्कालीन अधिष्ठाता आचार्य जिनसेन स्वामी, अमोघवर्ष के धर्म एवं राजगुरु थे। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन स्वामी के स्वर्गारोहण के बाद उनके अधूरे कार्यों को वि० सं० ८१४ के आसपास अमोघवर्ष के प्रश्रय में रहकर ही पूर्ण किए थे, जिनमें ६०,००० श्लोकप्रमाण जयधवल अन्य प्रमुख है । अमोघवर्ष की ही प्रेरणा से पार्वाभ्युदय महाकाव्य, महापुराण एवं उत्तरपुराण की भी रचनाएँ की गई। आचार्य उग्रादित्य, महान् गणितज्ञ महावीराचार्य,
१. दे० सतीशकुमार जैन द्वारा लिखित-श्रवणबेलगोल के जैन शिलालेख, पृ० २।
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