Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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मध्यकालीन जैन साहित्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन प्रोफेसर डॉ० राजाराम जैन*
आत्म- ख्याति की कामना से निरन्तर उदासीन रहने के कारण अधिकांश प्राचीन जैन कवियों ने स्वरचित रचनाओं में आत्म-परिचय अथवा लेखनकाल या लेखनस्थलादि की सूचनाएँ प्रदान नहीं कीं । यही कारण है कि उनके इतिवृत्त अभी तक तर्क-वितर्क के विषय बने हुए हैं । मध्यकालीन जैन कवियों ने सम्भवतः इस तथ्य का अनुभव किया होगा और यही कारण है कि कुछ स्वतन्त्र ऐतिहासिक काव्यों के साथ-साथ उन्होंने अपनी-अपनी रचनाओं में वर्ण्य विषय के साथ-साथ आदि एवं अन्त में प्रशस्तियाँ अंकित की और उनके माध्यम से उन्होंने अपना जीवनवृत्त, आश्रयदाता परिचय, पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्य तथा साहित्यकारों, पूर्ववर्त्ती एवं समकालीन राजाओं, सामन्तों, गुरुजनों और भट्टारकों के साथ-साथ देश अथवा नगर की प्रमुख राजनैतिक तथा सामाजिक घटनाओं के भी संकेत दिए हैं । अतः इन रचनाओं में पूर्ववर्त्ती एवं समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों के उपलब्ध होने से उनका महत्व विशेष रूप से बढ़ जाता है ।
स्वर्णकाल माना जा सकता है । रचनाएँ लिखीं कि उनका अभी कथन है कि जितनी मात्रा में
जैन - साहित्य के लेखन की दृष्टि से मध्यकाल वस्तुतः इस काल में जैन लेखकों ने विविध भाषाओं में इतनी अधिक तक पूरा लेखा-जोखा भी नहीं हो सका है । कुछ विद्वानों का जैन - साहित्य लिखा गया है, उसका अधिकांश भाग अनेक अज्ञात कारणों से नष्ट-भ्रष्ट हो गया और बाकी जो बचा है, उसके लगभग २५ प्रतिशत ग्रन्थों का केवल सूचीकरण ही हो सका है। और बाकी के लक्षाधिक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो वर्तमान में मठों, मन्दिरों, व्यक्तिगत-संग्रहालयों एवं शास्त्र भण्डारों में अज्ञातावस्था में पड़े हुए अपने उद्धार की राह देख रहे हैं । इनमें विभिन्न काल में विभिन्न भाषाओं में लिखित विविध काव्य, नाटक, चरित, दर्शन, सिद्धान्त, आचार, अध्यात्म, तीर्थ भ्रमण, व्याकरण एवं कोष आदि विषयक ग्रन्थ अवश्य होंगे तथा उनकी अधिकांश की प्रशस्तियों में राष्ट्रयो, प्रान्तीय एवं स्थानीय विविध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक घटनाएँ भी वर्णित होंगी। उन्हें कब प्रकाश मिल सकेगा, यह कह पाना कठिन ही है ।
उक्त सूचीकृत उपलब्ध साहित्य का भी अभी तक सम्भवतः साहित्य ही प्रकाश में आ सका है । इधर विद्वानों एवं शोधार्थियों का गया है, किन्तु विषय की दुरूहता तथा उत्साहप्रद सावनों की कमी के कारण इन ग्रन्थों के उद्धार की गति बहुत ही मन्द है ।
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अध्यक्ष, स्नातकोत्तर प्राकृत संस्कृत विभाग, ह० दा० जैन कालेज, आरा ।
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२५ से ३० प्रतिशत ध्यान इस ओर अवश्य
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