Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 2
राजप्रश्नीय एवं पायासिराजनसुत्त की उक्त विषयवस्तु से स्पष्ट है कि शरीर एवं जीव के एक मानने अथवा परलोक न मानने के सम्बन्ध में पायासी राजा द्वारा प्रस्तुत तर्क एवं कुमार कस्सप या केशी कुमार द्वारा उनका प्रतिवाद प्रायः समान है । अनेक उदाहरण भी एक दूसरे से मिलते है।
अब प्रश्न यह उठता है कि पायासी राजा की कथा का मूलस्रोत क्या है ? भगवान् महावीर एवं भगवान् बुद्ध के समय शरीर से भिन्न आत्मतत्त्व की मान्यता जोरों पर थी। उपनिषद् युग में आएमा का अस्तित्व इतने जोर-शोर से प्रचारित हुआ कि उसे या परलोक को न मानने वाला व्यक्ति समाज में गहित माना जाता था । आत्मा के कारण इस लोक में सामाजिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा को देखकर ही भगवान् बुद्ध को आत्मतत्त्व से चिढ़ सी हो गयी थी और उन्होंने उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो सांसारिक दुःखों के कारणों की ओर ध्यान न देकर आत्मतत्त्व के विषय में चिन्तन-मनन करते हैं।'
इतना सब होने पर भी भगवान् बुद्ध ने परलोक के विषय में कहा कि परलोक हो या न हो किन्तु उसे मानने से दो लाभ है पहला यह कि वह व्यक्ति समाज में सम्मानित होता है और दूसरा यह कि वह बुरे कर्म से भयभीत रहता है। यदि परलोक न भी हो तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता है किन्तु यदि परलोक है तो उसे सुमति मिलेगी। अतः परलोक हो या न हो, परलोक में आस्था रखना ही श्रेयस्कर है।'
भगवान् बुद्ध के इस परलोक सम्वन्धी मन्तव्य को ध्यान में रखकर यदि पायासिराजसुत्त का अध्ययन किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि बौद्धागम में राजा पायासो की कथा प्रक्षिप्त है । पायासिराजसुत्त में शरीर और जीव का निरूपण है तथा वह जीव शरीर त्याग कर परलोक जाता है वह भाव पायासी राजा के तर्क का खण्डन करते समय कुमार कस्सप के कथन में समाहित है। यहां यह उल्लेखनीय है कि भगवान् बुद्ध ने कहीं
१. ऐसे व्यक्तियों की उपमा अन्धों की पति से दी गयी है।
दीघनिकाय १/१३, देखिये वही २।२ । २. कामं खो पन माहु परो लोको...."अथ च पनायं भवं पुरिसपुक्रगलो दिट्ठव धम्मे चिजूनं पासंसौ-सीलवा पुरिसपुग्गलो सम्मादिट्ठि अथिकवादो ति । सचे खो अत्थेव परो लोको, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कटग्गाहोयं च दिट्ठव धम्मे विञ्जनं पासंसौ, यं च कायस्स भेदा परं मरणा सुगति सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति । एवमस्सायं अपण्णको धमो""....."
मज्झिमनिकायपालि खण्ड २, पृ० ८० । ३. ता हि नाम, राजञ, तुहं जीवन्तस्स जीवन्तियो जीवं न"....किं पन त्वं कालङ्कतस्स जीवं पस्सिस्ससि । -दीघनिकायपालि खण्ड २, पृ० २४८ ।
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