Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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१. प्रथमे स्कंधे गृहं ददाति (पहले गृह की प्राप्ति ) ।
२. एकस्मिन् प्रविष्टे द्वितीयो न प्रविशति ( एक व्यक्ति के प्रविष्ट होने पर दूसरा न प्रवेश करे) ।
Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
३. यश्च प्रविशति पंचशतकार्षापण्यादाय (जो व्यक्ति प्रवेश करे वह पाच सौ कार्षापण के साथ) ।
४. यदा गृहं विचयो भवति तदा मम गृहं सप्तमे दिवसे प्रत्यवेक्ष्यते ( घर की तलाशी के समय उसके घर की तलाशी सातवें दिन हो) ।
५.
निष्कासः प्रवेशश्च मद्दगृहं प्रवेक्ष्यतां न विचार्यत इति । ( मेरे घर में प्रवेश और वहिर्गमन करने वाले पर कोई विचार नहीं किया जाएगा ) ।
राजगृह के नैगमने अम्बपाली की सुन्दरता का वर्णन मगध सम्राट् के समक्ष इन शब्दों में किया था -
"वैशाल्यामाम्म्रपाली नाम वेश्या अतीव रूपयौवनसम्पन्ना चतुःषष्ठिकलात्मिका देवस्य उपभोग्या ।"
उसको पाने की मिलता है कि
आम्रपाली की इस रूपप्रशंसा से मगध सम्राट् बिम्बिसार के हृदय में प्यास जगा दी जो कभी बुझी नहीं । बौद्ध स्रोतों में इस तथ्य का स्पष्ट संकेत सम्राट् बिम्बिसार आम्रपाली के रूप-यौवन को भोगने के लिए गुप्त रूप से आए और वहाँ अज्ञात रूप से रहे । विदा वेला में आम्रपाली ने उनसे पूछा - " मैं आपसे सन्तान उत्पन्न करने वाली हूँ । उसका क्या होगा ?" बिम्बिसार ने कहा- "यह अंगूठी और रेशमी उत्तरीय लो । इसके साथ यदि वह नवजात शिशु पुत्र हो तो राजगृह मेरे पास भेज देना ।" यही विमलकौंडिन्य अम्बपाली का पुत्र हुआ । युवा होते-होते इसने माता आम्रपाली से पहले ही बौद्ध धर्म में दीक्षा ले ली । आश्चर्य नहीं कि पुत्र के श्रमण होने पर अम्बपाली के हृदय में वैराग्य भाव की क्षीण अग्निशिखा प्रज्वलित हुई हो और तथागत-दर्शन और उनके उत्सर्गमय जीवनगाथा ने उसे बौद्धभिक्षुणी बनने को उत्प्रेरित किया हो । और जब वह बौद्धभिक्षुणी बन गई तो फिर वहाँ भी वैराग्य-साधना और काव्य-कला के चरम उत्कर्ष का स्पर्श किया ।
इन प्राचीन सन्दर्भों के अतिरिक्त हमारी दृष्टि चौथी और सातवीं सदी के फाहियान ( ३९९ - ४१४ ई०) और ह्वेनसांग (६०६ - ६३० ई०) जैसे महान् चीनी यात्रियों के महत्त्वपूर्ण वृत्तान्तों की ओर भी जाती है । दोनों ही ने अपने यात्रा-वृत्तान्तों में अम्बपाली से जुड़ी स्मृतियों का उल्लेख किया है । फाहियान के अनुसार आम्रपाली ने वैशाली में बुद्ध को स्मृति में स्तूप बनवाया था, जिसके अवशेष तब भी वर्तमान थे । उससे कुछ हो दूर पर वह वाटिका थी जिसे गौतम बुद्ध को 'आराम' के लिये दान में दिया था ।
उस स्तूप का उल्लेख ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा-वृत्तान्त में किया है । यहीं पर ह्वेनसांग के अनुसार महाप्रजापती गौतमी तथा अन्य भिक्षुणियों ने निर्वाण प्राप्त किया, उसके निकट एक स्तूप है, और वह स्थान है, जहाँ आम्रवाटिका थी ।
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