Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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अब यदि माना जाय कि अनेक आकार चित्रज्ञान से सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन करने में हेतु हैं तो बतलाना होगा कि किस सम्बन्ध से वे आकार चित्रज्ञान में सम्बद्ध होकर चित्रज्ञान के कथन में कारण हैं ? तादात्म्य सम्बन्ध से वे सम्बद्ध हैं अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध से ?' उन आकारों को चित्रज्ञान में तदुत्पत्ति सम्बन्ध से सम्बद्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि समान कालीन पदार्थों में सम्बद्धता असम्भव है। तादात्म्य सम्बद्ध से भी चित्रज्ञान में आकारों की सम्बद्धता नहीं बनती है, क्योंकि अनेक आकारों से अभिन्न (अव्यतिरिच्यमान) होने के कारण ज्ञान में एकरूपता के अभाव का प्रसंग आयेगा । अर्थात् ज्ञान एकरूप नहीं रहेगा वह भी आकारों की तरह अनेक रूप हो जायेगा। क्योंकि जो अनेक आकारों से अभिन्न स्वरूप है, वह अनेक हैं । जैसे अनेक आकारों का स्वरूप चित्रज्ञान भी अनेक आकारों से अभिन्न है, इसलिए वह ज्ञान भी अनेक है । अतः उन आकारों में तादात्म्य नहीं हो सकती है । एक बात यह भी है कि अनेक आकारों में भी एक ज्ञान स्वरूप से अभिन्न (अव्यतिरेक) होने पर अनेकत्व नहीं बन सकता है। क्योंकि जो एक से अव्यतिरेक (अभिन्न) हैं वह अनेक नहीं है, जैसे उसी ज्ञान का स्वरूप । अनेक रूप से माने गये नील आदि आकार भी एक ज्ञान स्वरूप से अभिन्न है, इसलिए यह अनेक नहीं है।
चित्रता अर्थ (पदार्थ) का धर्म है-चित्र अद्वैतवादियों का एक अभ्यास हाने से चित्रता पदार्थ (अर्थ) का धर्म नहीं है । अप्रत्यक्ष से विरोध होने पर अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं होती है। अबाधित प्रत्यक्ष ज्ञान में चित्र के आकार बाहरी पदार्थों के धर्मरूप से प्रतिभासित होते हैं। अतः उनमें ज्ञानधर्मता मानना ठीक नहीं है। जो जिस धर्म से प्रतीत होता है, वह उससे अन्य धर्म वाला नहीं है, जैसे अग्नि के धर्मरूप से प्रतीत होने वाली उष्णता जल का धर्म है। चित्रता भी बाह्यार्थ के धर्मरूप प्रतीत होती है, इसलिए वह अभी ज्ञान धर्मरूप नहीं है। यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि चित्रता को बाह्य पदार्थ का धर्म मानने पर ग्रहण और अग्रहण की उत्पत्ति कैसे बनेगी ? तो जैन तर्कशास्त्री इसके उत्तर में कहते है कि चित्रज्ञान (प्रतिपत्ति) में अनेक वर्षों की प्रति पंक्ति कारण होती है । नील भाग के ज्ञान होने पर भी पीत आदि भाग से अप्रतिपत्ति में चित्रता का ज्ञान न होना सिद्ध है।
चित्रता को ज्ञान का धर्म मानने पर भी विरोध समान ही है। क्योंकि यहां प्रश्न होता है कि एक ज्ञान अनेक आकार वाला है उससे विपरीत ? एक चित्र ज्ञान को अनेक आकार वाला मानना ठीक नहीं है, क्योंकि परस्पर में विरुद्ध अथवा भिन्न (व्यावत्त) अनेक आकारों का एक अनंश ज्ञान में रहना (वृत्ति) संभव नहीं है। जिनकी परस्पर में भिन्नता होती है उनकी अनंश एक वस्तु में वृत्ति (अस्तित्व) या सत्ता नहीं होतो है । जैसे गाय, घोड़े
१. अथ सम्बद्धान्, किं तादात्म्येन तदुपत्त्या वा ? न्याय कुमुदचन्द्र, पृ० १२८ । २. ग्रहणाऽग्रहण लक्षणविरुद्धधर्मा ध्यासान्नार्थधर्मश्चित्रता इति, तदप्यसुन्दरम्, वही। ३. तथाहि ज्ञान मेकमनेका कारम् तविपरीत वा ?
(क) न्याय कुमुदचन्द्र, पृ० १२८ । (ख) स्याद्वादरत्नाकर, पृ० १७७ ।
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