Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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___Vaishali Institute Research Bulletin No.7
अशुद्धवृत्ति को प्रकट करने वाला मोह नहीं है वह तीनों लोकों में प्रसिद्ध महिमा वाला महादेव कहलाता है।'
जो वीतरागी, सर्वज्ञ, शाश्वतसुख का धारक, कर्मों से सर्वथा रहित एवं पवित्र है। वही सभी देवताओं का पूज्य, सभी योगियों का ध्येय एवं सभी नीतियों का जनक महादेव है ।
__ ऐसे सद्वृत्ति वाले उस परम ज्योति के धारक को शान्ति के लिये मैं भक्तिपूर्वक नमन करता हूँ। २. स्नान अष्टक
द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का स्नान कहा गया है। एक बाह्य स्नान है एवं दूसरा आध्यात्मिक स्नान है। शरीर-भाग को जल आदि से जो शुद्ध किया जाता है उसे द्रव्य स्नान कहते हैं । जो व्यक्ति देवता, अतिथि की पूजा करता है, भावशुद्धि के लिये धर्माचरण करता है तथा ध्यानरूपी जल से इस जीव को कर्म-मलों से शुद्ध करता है, वह भावस्नान करता है।
इसीलिए परम ऋषियों के द्वारा हिंसा आदि दोषों से निवृत्ति, व्रत-शील आदि की वृद्धि करने वाले कार्यों को परम-भाव-स्नान कहा है। इस स्नान के द्वारा जीव पुनः कर्मों के मल में लिप्त नहीं होता, इसीलिए उसे पारमार्थिक रूप से 'स्नातक' कहा जाता है । ३. पूजा अष्टक
तत्वार्थ को जानने वालों ने दो प्रकार की पूजा कही है-द्रव्य एवं भाव पूजा । शुद्ध आगम मार्ग की विधि से चमेली आदि पुष्पों के द्वारा आठ कर्मों की मुक्ति के लिये जो देवता की पूजा की जाती है वह शुद्ध पूजा है, जो स्वर्ग प्रदान करने वाली है। द्रव्यों से युक्त होने से इसे द्रव्य-पूजा भी कहा जाता है । इससे पुण्य-बन्धन होता है।
किन्तु भावरूप पुष्पों के द्वारा शास्त्रोक्त गुणों सहित अहिंसा आदि पांच व्रतों एवं गुरुभक्ति, तप, ज्ञान, इन आठ पुष्पों से जो पूजा की जाती है, वह भावपूजा है। उससे कर्मों का क्षय होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ४. अग्निकारक अष्टक
. कर्म-ईंधन को सद्भाव की दृढ़ आहुति द्वारा धर्म-ध्यान की अग्नि में होम करना वास्त. विक यज्ञ करना है । यह भाव अग्निकारक ज्ञान-ध्यान फल को देने वाला और मोक्षप्रदायी है।
१. यस्य संक्लेशजननौ, रागो नास्त्यैव सर्वथा ।
न च द्वेषोऽपि सत्त्वेष, शमेन्धनदवानलः ॥ न च मोहोऽपि सज्ज्ञान च्छादनोऽशूद्धवत्तकृत् ।
त्रिलोकख्यातमहिमा, महादेवः स उच्यते ॥ (१. १-२) २. अहिंसा सत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसंगता ।
गुरुभक्तिस्तपो ज्ञानं सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ।। (३.६)
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