Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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Vaishali Institute Research Bulletin No. 7
१७. मांस-भक्षण दूषण अष्टक
कुछ ताकिक कहते हैं कि भात आदि की तरह मांस भी प्राणियों के लिये भक्षणीय है। किन्तु भक्ष्य, अभक्ष्य की व्यवस्था शास्त्र और लोक में की गयी है। गाय का दूध भक्ष्य है, रुधिर भक्ष्य नहीं है। स्त्रीपना माता और पत्नी में समान होने पर भी दोनों एक व्यक्ति की भोग्या नहीं होती। अतः शास्त्र और लोक के व्यवहार को देखकर बुद्धिमान लोग हमेशा मांस-भक्षण का निषेध करते हैं। इतना विवेक न हो तो मांस-भक्षी पागल की तरह व्यवहार करता है। १८. मांस-भक्षक मत-दूषण अष्टक
मांस-भक्षण के पक्ष में जो तर्क एवं शब्दार्थ कुछ लोग प्रस्तुत करते हैं, उनके मत में ही पूर्वापर विरोध होता है। कभी वे कहते हैं कि इस जन्म में दोष है तो कभी कहते हैं कि शास्त्रों से बाह्य है-मांसभक्षण में दोष । अतः ऐसे अनिश्चित मत वालों के कहने से मांसभक्षण को निर्दोष नहीं मानना चाहिये । मांस-भक्षक अनेक जन्मों तक पशु-योनि पाकर दुखी होता है। १९. मद्यपान-दूषण अष्टक
मद्यपान में बेहोशी के दोष के साथ-साथ जीवों के नाश का भी प्रत्यक्ष दोष है । मद्य-पान में प्रत्यक्ष दोष दिखाई देते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में भी इसके कई दृष्टान्त प्राप्त होते है। सुना जाता है कि महातपस्वी, ज्ञानी कोई ऋषि स्वर्ग की अप्सरा की प्रेरणा से मद्यपान करके मृत्यु को प्राप्त हुआ । मद्यपान के द्वारा कोई ऋषि अपने तप से भ्रष्ट होकर हिंसा, अब्रह्म आदि का सेवनकर नरक में गया । अतः मद्य को सभी दोषों की खान मानकर त्यागना चाहिये। २०. मैथुन-दूषण अष्टक
राग से ही मैथुन-दोष में व्यक्ति लगता है । अतः शास्त्र में मैथुन-निषेध की बात कही गई है। धर्म, अर्थ एवं पुत्र की कामना से स्व-पत्नी के साथ उचित समय में समागम करने में दोष नहीं है। किन्तु इसके अतिरिक्त सर्वत्र मैथुन का निषेध किया गया है । इसे अधर्म का मूल और संसार-भ्रमण का कारण कहा गया है । अतः बार-बार मृत्यु को न चाहने वाले को विषयुक्त भोजन की तरह मैथुन को त्याग देना चाहिये ।' राग से उत्पन्न होने वाली हिंसा जैसे दोषयुक्त है, उसी प्रकार राग से उत्पन्न मैथुन भी दोषयुक्त है । अतः त्याज्य है । २१. सूक्ष्म बुद्धि-आश्रय अष्टक
सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा हमेशा धर्म को जानकर धार्मिक व्यक्ति आचरण करें। अन्यथा धर्म बुद्धि ही उनकी विघातक बन सकती है। जैसे रोगी सही औषधि से ही निरोग हो सकता १. मूलं चैतदधर्मस्य, भवभावप्रवर्धनम् ।
तत्माद्विष्पान्नवत्याज्यमिदं मृत्युमनिच्छता ॥ (२०.८)
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