Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 7
Author(s): Nand Kishor Prasad
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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हरिभद्रसूरिकृत अष्टक-प्रकरण : एक मूल्यांकन
135 है उसी प्रकार सूक्ष्मबुद्धि से ही तत्व का ज्ञान हो सकता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को ध्यान में रखकर धर्म के कार्यों में प्रवृत्त होना चाहिये । २२. भावशुद्धि-विचार अष्टक
____ भाव-शुद्धि शास्त्रवत फल को देने वाली है। राग, द्वेष, मोह आदि कषाय भावों को मलीन करने वाले हैं। मोह होने से व्यक्ति आग्रही बन जाता है, जिससे वह परमार्थ को नहीं जान पाता । अतः आत्मा-साक्षात्कार के इच्छुक व्यक्ति को दीक्षा, दान आदि सभी कार्यों में भावशुद्धि को महत्व देना चाहिये । भावशुद्धि से स्व-पर का विवेक जागृत होता है, दुराग्रह का नाश होता है। २३. शासन-मालिन्य निषेध अष्टक
जो व्यक्ति अपने धर्म-शासन में मलीनता लाता है वह दूसरे प्राणियों में भी मिथ्यात्व फैलाने में कारण बनता है । शासन-मालिन्य से सब प्रकार के अनर्थ होते हैं। अतः प्रयत्नपूर्वक पाप के साधनभूत शासन-मालिन्य को दूर करना चाहिये । २४. पुण्यापुण्य-विचार अष्टक
जैसे मनुष्य एक घर से दूसरे घर में क्रमशः अधिक सजावट करता है, वैसे ही अच्छे धर्म से एक जन्म से दूसरा जन्म अधिक सुधरा हुआ होता है। किन्तु महापापों से यही उल्टा होता है । अतः पुण्य-कर्मों को ही करना चाहिए जो सब सम्पदाओं को देने वाले हैं । जीवों पर दया, विधिवत् गुरू-पूजन, विशुद्ध शील आचरण एवं वैराग्यवृत्ति पुण्य-कर्मों को बांधने वाले कार्य हैं।' २५. पुण्य-फल अष्टक
पुण्य-फल उचित प्रवृत्तियों से प्राप्त होते है । जैसे व्यक्ति गृहस्थ जीवन में माता-पिता की सेवा कर उन्हें सुख पहुँचाने का प्रयत्न करता है, वैसे ही साधक को अपने गुरु की सेवा कर उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिये। गुरु-सेवा करने वाला व्यक्ति लोक में कृतज्ञ, पुण्यवान, धर्मपूजक आदि कहा जाता है । २६. तीर्थ-दान अष्टक
तीर्थकर को जगत्गुरु कहा गया है। उनके द्वारा दिया गया दान महादान है। इसकी महिमा करोड़ो सूत्रों में कही गयी है । किन्तु कुछ लोग जो इसमें शंका करते हैं, वह ठीक नहीं है। २७. तीर्थवृदान शंकापरिहार अष्टक
__कुछ लोग यह कहते हैं कि जो जन्म से ही भोक्षगामी निश्चित है, उन्हें दान देने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु तीर्थकर तो सबके प्रति अनुकम्पा और शुभ आशय से दान में प्रवृत्त होते हैं । जैसे भगवान् महावीर ने देवदूष्य का आधा भाग दान किया था।
१. दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ (२४.८)
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